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नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य
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श्राक्षेपों का सबल उत्तर दिया है। और जैनदर्शन के गौरव को उन्नत किया है-- बढाया है। भारतीय दर्शन साहित्य में ऐसा एक भी ग्रंथ दिखाई नहीं देता, जो इसकी समता कर सके। इस ग्रंथ में कितनी ही चर्चाएं ग्रपूर्व हैं । श्रौर वस्तु तत्त्व का विवेचन बड़ी सुन्दरता से दिया हुआ है। इसके भ्राघुनिक सम्पादित संस्करण की आवश्यकता है। क्योंकि सन् १९१८ में प्रकाशित संस्करण अनुपलब्ध है, फिर वह अशुद्ध और त्रुटिपूर्ण है । भ्रष्टसहस्त्री - (देवागमालंकार ) – यह श्राचार्य समन्तभद्र के देवागम पर लिखी गई विस्तृत श्रीर महत्वपूर्ण टीका है । देवागम पर लिखी गई कलंक देव की दुरूह और दुरवगाह अष्टशती विवरण ( देवागमभाव्य ) को अन्तः प्रविष्ट करते हुए उसकी प्रत्येक कारिका का व्याख्यान किया गया है। विद्यानन्द यदि भ्रष्टशती के दुरूह और जटिल पद-वाक्यों के गूढ रहस्य का उद्भावन न करते तो विद्वानों की उसमें गति होना संभव नहीं था । उन्होंने अष्टसहस्त्री में कितने ही नये विचार और विस्तृत चर्चाएं दी हुई हैं, जिनसे पाठक उसके महत्व का सहज ही अनुमान कर सकते हैं । विद्यानन्द ने स्वयं लिखा है कि हजार शास्त्रों को सुनने से क्या, अकेली प्रष्ट सहस्री को सुन लीजिये उसी से समस्त सिद्धांतों का परिज्ञान हो जायगा । उन्होंने कुमारसेन को उक्तियों से भ्रष्ट सहस्री को वर्धमान भी बतलाया है। और कष्टसहली भी सूचित किया है।
इस पर लघु समन्तभद्र ने 'अष्टसहस्री विषम पद तात्पर्य टीका' और श्वेताम्बरीय विद्वान यशोविजय ने 'अष्टसही तात्पर्यविवरण' नाम की टीकाएं लिखी हैं। चूंकि देवागम में दश परिच्छेद हैं। प्रत: भ्रष्टसहस्त्री में दश परिच्छेद दिये हुए हैं।
युक्भ्यनुशासनालंकार - यह आचार्य समन्तभद्र का महत्वपूर्ण और गंभीर स्तोत्र ग्रंथ है। उन्होंने श्राप्तमीमांसा के बाद इसकी रचना की है। आप्तमीमांसा में अन्तिम तीर्थंकर महावीर की परीक्षा की गई है। और परीक्षा के बाद उनकी स्तुति की गई है। इसमें कुल ६४ पद्य हैं । प्रत्येक पद्म दुरूह और गम्भीर अर्थ को लिये हुए है। उस पर विद्यानन्द की 'युक्त्यनुशासनालंकार टीका है। जो पद्यों के भावों का उद्घाटन करती हुई दार्शनिक चर्चा से श्रोत-प्रोत है। इस ग्रन्थ का पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने बड़े परिश्रम से हिन्दी अनुवाद किया है, जिससे ग्रन्थ का अध्ययन सबके लिये सुलभ हो गया है। दूसरी हिन्दी टीका पं० मूलचन्द्र जी शास्त्री महावीर जी ने की है, जो प्रकाशित हो चुकी है ।
विद्यानन्द महोदय - श्राचार्य विद्यानन्द की यह महत्वपूर्ण प्रथम कृति थी । माचार्य विद्यानन्द ने स्वयं 'लोकवार्तिकादि ग्रन्थों में उसका उल्लेख अनेक स्थलों पर किया है। खेद है कि विद्यानन्द की यह बहुमुल्य कृति अनुपलब्ध है | श्वेताम्बरीय विद्वान वादिदेव सूरि ने 'स्याद्वादरत्नाकर में उसका उल्लेख निम्न वाक्यों में किया है" महोदये च - ' कालान्तराविस्मरणकारणं हि धारणानिधानं ज्ञानं संस्कारः प्रतीयते इति वदन विद्यानन्दः) संस्कार धारणयोरेकार्थ्य मचकथत्" । (स्याद्वादरत्नाकर पृ० ३४९ ) । उनकी इस मौलिक स्वतंत्र रचना का अन्वेषण होना आवश्यक है।
आप्तपरीक्षा - प्राप्तमीमांसा की तरह प्राचार्य विद्यानन्द ने प्राप्तपरीक्षा में तत्वार्थ सूत्र के मंगलाचरण तमोक्षमार्ग नेतृत्व, कर्मभूभृद्ध तृव पर विश्वतत्व ज्ञातृत्व इन तीन गुण 'विशिष्ट प्राप्त का समर्थन करते हुए अन्ययोग व्यवच्छेद से ईश्वर, कपिल, बुद्ध और ब्रह्म की परीक्षा पूर्वक प्रर्हन्त जिन को प्राप्त निश्चित किया है। ग्रन्थ में १२४ कारिकाए है। और उन पर विद्यानन्द स्वामी की प्राप्तपरीक्षालं कृति' नाम की स्वोपज्ञटीका है। ग्रन्थ की भाषा सरल और विशद है । कारिकाए सरल । और टीका की भाषा सरल सुगम बोधक है। इसमें वस्तु तत्त्व का अच्छा प्रतिपादन किया गया है। यह ग्रन्थ पं० दरबारी लाल जी न्यायाचार्य द्वारा अनुवादित सम्पादित होकर वीर सेवामन्दिर से प्रकाशित हो चुका है ।
प्रमाणपरीक्षा - यह विद्यानन्द की तीसरी स्वतंत्र कृति है । इसमें प्रमाण का सम्यग्ज्ञानत्व लक्षण करके उसके भेद-प्रभेदों का विषय तथा फल और हेतुओं की सुसम्बद्ध प्रामाणिक और विस्तृत चर्चा सरल संस्कृत गद्य में
१. कष्ट सही सिद्धा साऽष्ट सहस्रीयमत्र मे पुष्यात् । शश्वदभीष्ट-सहत्री कुमारसेनोति वर्षमानार्थी ||