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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
सर्वनन्दि भट्टारक सर्वनन्दि भट्टारक-कुन्दकुम्दान्बय के एक चट्ट गद भट्टारक (मिट्टी के पात्र धारी) के शिष्य श्री सर्वनन्दि भद्रारक ने इस (कोप्पल) नामक स्थान में निवास कर यहां के नगरवासी लोगों को अनेक उपदेश दिए पोर बहुत समय तक कठोर तपश्चरण कर सन्यास विधि से शरीर का परित्याग किया। यह सर्वनन्दि सब पापों की शान्ति करें। यह लेख शक सं०८०३ सन् ८८१ (वि० सं०६३८) का है। अतः इन सर्वनन्दि का समय ईसा की हवीं और विक्रम की दशमी शताब्दी का पूर्वाध है।
(Jainism in Sauth India Po 523)
प्राचार्य विद्यानन्द विद्यानन्द- अपने समय के प्रसिद्ध तार्किक विद्वान थे। ग्रापका जैन ताकिक विद्वानों में विशिष्ट स्थान है। यापकी कृतियां प्रापके अतुलतलस्पर्शी पाण्डित्य और सर्वतोमुखी प्रतिभा का पद-पद पर अनुभव कराती हैं । अापकी अष्ट सहस्री और तत्त्वार्थ इलोकवार्तिकादि कृतियों से जहां अापके मिशाल वैदुप्य का पता चलता है वहीं उनकी महत्ता और गंभीरता का भी परिज्ञान होता है। प्रापकी कृतियों अपना सानी नहीं रखतीं। जैन दर्शन उन कृतियों से गौरवान्वित है। जैन परम्परा में विद्यानन्द नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। परन्तु प्रस्तुत विद्यानन्द उन सब से ज्येष्ठ, प्रसिद्ध पौरप्राचीन बहुश्रुत विद्वान हैं । यद्यपि उन्होंने अपनी कृतियों में जीवन-घटना और समयादि का कोई उल्लेख नहीं किया, फिर भी अन्य सूत्रों से उनो मा का परि जाता है।
आचार्य विद्यानन्द का जन्म ब्राह्मण कुल में हश्रा था। वे जन्म से होनहार और प्रतिभाशाली थे । अतएव उन्होंने वैशेषिक, न्याय मीमांसा, वेदान्त प्रादि वैदिक दर्शनों का अच्छा अभ्यास किया था, और बौद्धदर्शन के मन्तब्यों में विशेषतया दिग्नाग, धर्मकीति और प्रज्ञाकर मादि प्रसिद्ध बौद्ध विद्वानों के दार्शनिक ग्रन्थों का भी परिचय प्राप्त किया। इस तरह वे दर्शन शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान बने। और जैन सिद्धान्त के ग्रन्थों के भी बे विशिष्ट अभ्यासी थे। जान पड़ता हे विद्यानन्द उस समय के वाद-विवाद में भी सम्मिलित हुए हों तो कोई आश्चर्य नहीं । हो सकता है उन्हें जैन और बौद्ध विद्वानों के मध्य होने वाले शास्त्रार्थों को देखने या भाग लेने का अवसर भी प्राप्त हमा हो। वे अपने समय के निष्णात तार्किक विद्वान थे। और ताफिक विद्वानों में उनका ऊँचा स्थान था। उन्होंने जैन धर्म कब धारण किया, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। पर वे जैन धर्म के केवल विशिष्ट विद्वान ही नहीं थे; किन्तु जैनाचार के संपालक मुनि पुंगव भी थे। उनकी कृतिमो उनके अतुल तलस्पर्शी पांडित्य का पद-पद पर बोध कराती हैं। जैन परम्परा में विद्यानन्द नाम के अनेक विद्वान प्राचार्य और भट्टारक हो गये हैं। पर आपका उन सब में महत्वपूर्ण स्थान है। विद्यानन्द प्रसिद्ध वैयाकरण, श्रेष्ठ कवि, अद्वितीयवादि, महान सैद्धान्तिक, महान् ताकिक, सक्षम प्रज्ञ और जिन शासन के सच्चे भक्त थे। अापकी रचनाओं पर गद्धपिच्छाचार्य, स्वामी समन्तभद्र, श्रीदत्त, सिद्धसेन, पात्रस्वामी भट्टाकलंकदेव और कुमारनन्दि भट्रारक आदि पूर्ववर्ती विद्वानों की रचनाओं का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। प्राप की दो तरह की रचनाएँ प्राप्त होती हैं। टीकात्मक और स्वतंत्र ।
मापका कोई जीवन परिचय नहीं मिलता। और न मापके जीवन से सम्बन्धित घटनाओं का ही कोई उल्लेख उपलब्ध होता है। प्रापने अनेक ग्रन्थों की रचना की है। जिनके नाम इस प्रकार है :
१. तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक, २. अष्टसहस्री (देवागमालंकार, और युक्त्यनुशासनालकार ये तीन टीका ग्रन्थ हैं। और विद्यानन्द महोदय, प्राप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासन परीक्षा, और श्रीपुर पाश्वनाथ स्तोत्र, ये सब उनकी स्वतन्त्र कृतियां हैं।
तत्त्वार्य इलोकवासिक-यह गद्धपिच्छाचार्य के तत्वार्थ सूत्र पर विशाल टीका है। जिसके पश्च वार्तिको पर उन्होंने स्वयं गद्य में भाष्य अथवा व्याख्यान लिखा है। यह अपने विषय की प्रमेय बहुल टीका है। प्राचार्य विद्यानन्द ने इस रचना द्वारा कुमारिल और धर्मकीति जैसे प्रसिद्ध ताकिक विद्वानों के जनदर्शन पर किये गए
१. विद्यानन्द नाम के अन्य विद्वानों का सथाम्धान परिचय दिया गया है, पाठक उनका वहां अवलोकन करें।