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ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
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दूर करने अथवा मारने या वियुक्त करने का प्रयत्न करते हैं। पर पुण्यात्मा जीव सदा सुखी और सम्पन्न रहते हैं। प्रतएव वह कुमार भी उनपर सदा विजयी रहा। बारह वर्ष के बाद कुमार अनेक विद्याओं और कलापों से मंयुक्त होकर वैभवसहित अपने माता-पिता से मिलता है। उस समय पुत्र मिलन का दृश्य बड़ा ही करुण और दृष्टव्य है । वह वैवाहिक बन्धन में बद्ध हो कर सांसारिक सुख भी भोगता है, और भगवान नेमिनाथ द्वारा यह जानकार कि १२वर्ष में द्वाराषतो का विनाश होगा, वह भोगों से विरक्त हो दिगम्बर साधु हो जाता है और तपश्चरण कर पूर्ण स्वातन्ध्य प्राप्त करता है। इसी से कवि ने ग्रन्थ की प्रत्येक सन्धिं पुष्पिका में धर्म-अर्थ-काम और मोक्षरूपपुरुषार्थ चतुष्टय से भूषित बतलाया है। । ग्रन्थ की भाषा में स्वाभाविक माधुर्य और पद लालित्य है। रस अलंकार और अनेक छंद भी उसकी सरसता में सहायक हैं। ग्रन्थ महत्वपूर्ण और प्रकाशित होने के योग्य है । पज्जूण्ण चरिउ की फरुव मगर की ६३ पत्रात्मक प्रति में १०वी संधि तक सिद्ध कविकृत प्रथम संधि जैसी पुप्पिका दी हुई हैं। और ११वीं मधि से १५वीं संधि तक दुसरी पुष्पिका है । जिनसे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि कविसिंह ने ११वों संधि स १५वीं संधि तक ५ संधियों को स्वयं रचा है। उसने पूर्व की संधियों के सम्बन्ध में यह कहना कठिन है कि कितनी संधि पार समुद्धारित की हैं । क्योंकि ११वीं संधि की पुष्पि का निम्न प्रकार है:
"इय पज्जुण्ण कहाए पयडिय धम्मत्थकाम मोक्खाए बुहरल्हण सुन कई सीहविरइयाए सच्चमहादेवो माणभंगो णाम एकादशमो संधि परिभछेयो समत्तो।"
पग्रनन्दि प्रती प्रस्तुत पद्मनन्दि राद्धान्त शुभचन्द्र के शिप्य थे। इन्होंने अपने को उक्त शुभचन्द्र का अग्र शिष्य लिखा है। यह महातपस्वी और अध्यात्म शास्त्र के बड़े भारी विद्वान थे। और जनामृतरूपी सागर के बढ़ाने वाले थे। इनके विद्यागुरु कनकनन्दी पंडित थे। इनके नाम के साथ पंडितदेव, ब्रती और मुनि की उपाधियां पाई जाती हैं। इन्होंने प्राचार्य अमृतचन्द्र को वचन चन्द्रिका से प्राध्यात्मिक विकास प्राप्त किया था। इन्होंने निम्बराज के सम्बोधनार्थ पअनन्दि की एकत्व सप्तति की कगड़ी टीका बनाई थी। टीका की प्रशस्ति में पद्यनन्दी और निम्बराज को प्रशंसा की गई है। ये निम्बराज वे जान पड़ते हैं जो पार्श्वकदि कृत 'निम्ब सावन्त-चरिते' नाम के ५०६ षट्पदी पद्यात्मक कन्नड काव्य के नायक हैं । इस काध्य के वृत्तान्त से ज्ञात होता है कि निम्बराज शिलाहारवंशीय गण्डरादित्य राजा के सामन्त थे । इन्होंने कोल्हापुर में 'रूपनारायण' वसदि का निर्माण कराया था। और कार्तिक वदि पंचमी शक मं. १०५८ (वि० सं० ११८३) में कोल्हापूर व मिरज के आसपास के ग्रामों की प्राय का दान भी दिया था। इसमें इन पद्मनन्दी व्रती का समय विक्रम की १२वीं शताब्दी है। एकत्व सप्तति की कनडी टीका की अन्तिम प्रशस्ति इस प्रकार है:
श्रीपानन्दीवतिनिमितेयम् एकत्वसप्तत्यखिलार्थप्रतिः ।
वत्तिश्चिरं निम्बर प्रबोधलब्धात्मवृत्ति जयतां अगत्याम् ।। स्वस्ति श्री रामचन्द्र रद्धान्तदेवाशिष्येण कनकनन्दि पण्डितवाग्रश्मिविकसित रकमुदानन्द श्रीमदअमृतचन्द्रचन्द्रिकोन्मीलित नेत्रोत्पलाबलोकिताशेषाध्यात्मतत्त्ववेदिना पचनन्दिमुनिना श्रीमज्जन सुधाब्धि धर्धनकरापुर्णन्दारा तिवीर. श्रीपति निम्बराजावबोधनाय कृतंकत्वसप्ततेवत्तिरियम्-तयाः संप्रवदन्ति संततमिह श्रीपद्मनन्दि प्रती, कामध्वंसक इत्यलं तबनतं तेषां वचस्सर्वथा।"
(-पयनन्दि पंच विंशतिका की अंग्रेजी प्रस्तावना पृ० १७)
१. इय पज्जुण्ण कहाए पयडिय-धम्मत्य-काम-मोक्खाए कइ सिख-विरश्याए पठमो संपी परि समसो ११॥ २. इय पज्जुषण कहाए पपडियधम्मत्य काम मोनखाए बुह रल्हण सुन कर सीह विरइयाए पज्जुण्ण-संकु-भारण-प्रणिरुह णिवारणगमणं णाम पण्णारहमो परिच्छेउ समतो।