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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
गिरि कोति
थे
प्रस्तुत गिरिकीति भूल संघ बलात्कार गण सरस्वतिगच्छ कुन्दकुन्दान्वय के विद्वान चन्द्रकीर्ति के शिष्य । यह चन्द्रकीति मेघचन्द्र के सधर्मा थे। गिरिकीति ने प्रशस्ति में निम्न विद्वानों का उल्लेख किया है- श्रुतकीर्ति चन्द्र चन्द्र कीर्ति और गिरिकीति । यह अपने समय के अच्छे विद्वान थे। गोम्मटसार की रचना प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने चामुण्डराय के प्रश्नानुसार की है। यह चामुण्डराय गंगनरेश मारसिंह द्वितीय के श्रमात्य और सेनापति थे । इन्होंने अपना चामुण्डराय पुराण शक० सं० ६०० (सन् १७८ ई०) में बनाया । अतः गोम्मटसार की रचना का भी वही समय है । गिरिकीति की एकमात्र कृति गोम्मटसार को पंजिका है। इस पंजिका का उल्लेख अभयचन्द्र ने अपनी मन्द प्रबोधिका टीका में किया है। जो उन्होंने गोम्मटसार की रचना के लगभग एक सौ सोलह वर्ष बाद शक सं० १०१६ सन् १०६४ (वि० सं० ११५१ ) में बनाकर समाप्त की थी। जैसा कि निम्न गाथा से स्पष्ट है :
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सोलह सहिय सहस्से गवसक काले पवड्ढमाणस्स । भावसमस्ससमत्ता कक्षिय मंदीसरे
एसा ॥
प्रस्तुत पंजिका की प्रति ६८ पत्रात्मक है जो सं० १५६० की प्रतिलिपि को हुई है। पंजिका की भाषा प्राकृत संस्कृत मिश्रित है। जिसमें गोम्मटसार जीवकाण्ड- कर्मकाण्ड की गाथाओं के विशिष्ट शब्दों वा विमपदों का अर्थ दिया गया है। कहीं कहीं व्याख्या भी संक्षिप्त रूप में दी गई | सभी गाथाओं पर पंजिका नहीं है ।
पंजिका की विशेषता
पंजिका का अध्ययन करने से उसकी विशिष्टता का अनुभव होता है। कहीं कहीं सैद्धान्तिक बातों का स्पष्टीकरण किया गया है, उसकी भी जानकारी होती है। जीवकाण्ड की पंजिका में वस्तुतत्व का विचार करते हुए उसे पुष्ट करने के लिए अन्य ग्रन्थकारों के उल्लेख भी उद्धृत किये हैं जिससे ग्रन्थ की प्रामाणिकता रहे। उसका आदि मंगल पद्य निम्न प्रकार हैं
परण मिय जिणिदं चंदं गोम्मट संग्गह समग्ग सुत्ताणं । केसिपि भणिस्सामो विवरण मण्णेस समासिज्ज ।।
तत्थ लाव तेसि सुप्तानमा दिए मंगलट्ठ भणिस्स मागट्ठे विसय पइष्णर करणट्ठे व कयस्स सिद्ध मिच्चाइ माहा सुत्तस्सरी उम्रयेणट्ठ विवरणं कहिस्लामो तंजावोच्छे
चारो गुणस्थानों में भाव किस अपेक्षा से निरूपित हैं इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में भाव दर्शन मोह की अपेक्षा से कहे गये हैं, क्योंकि अविरत गुणस्थान तक चारित्र नहीं होता ।
१. सो जयउ वासुपूज्जो सिवासु पुज्ञासुपुज्ज-पय- पउमो | विमल वसुपूज्यसुदो सुदकित्ति पिये पिये वादि ॥१ समुदिय व चन्दपसाद मुदकित्तिमरो
जो सो कित्ति भणिज्जद परिपुज्जिय चंदकित्तिति ॥२ जेरणासेस वसंतिया सरमई ठारांत रागो हणीं ।
जं गाढं परिचभिकरण मुहया सोजत मुद्दालाई
जस्सा पुग्न गुणप्पभूदयालंकार सोहम्मिरि
....... किसिदेव जदिला तेरणासि ग्रंथो को । ३ - पंजिका प्रशस्ति
२. अथवा सम्छंन गर्भापपादानाश्रित्य जन्म भवतीति गोम्मट पंजिकाकारादीनामभिप्रायः ।
गो० जी० मन्द प्रबोधिका टीका ग्रा० ८३