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________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान आचार्य इसे स्पष्ट करते हुए उक्तं च रूप से तत्त्वार्थ सूत्र के निम्न सूत्र का उल्लेख किया है बुतं च तच्चट्ठयारेणं "मोहक्षयात् ज्ञानदर्शनावरणजोहान्तरायक्षयाच्च केवलमिवि ।" मिथ्यात्व के भेदों का कथन करते हुए उनके नाम श्रीर लक्षण निम्न प्रकार दिये हैं-- एकान्त मिथ्यात्व विपरीत मिथ्यात्व, वैनयिक मिथ्यात्व संशयित मिथ्यात्व और अज्ञान मिथ्यात्व ।' एयंत मिथ्यत्वादिप्रत्थि चेव, णत्थि सेव, प्रणिध्वमेव, एयमेव, अयमेव तच्च मिच्चादि सम्बहाव रणरूपो श्रहिष्यायो एयंत मिच्छत णाम । प्रहिंसादिलक्खण सद्धम्मफलस्स सग्गापवग्गस्स हिंसादि पावकललेख परिच्छेदणाहित्यायो विवरीय ३६६ मिच्छत्तणाम | सम्म सणादि णिरदेवखेण गुरु- पाय-पू आदि सक्क्षणेण विनएणेव मोक्लोत्ति अहिष्यानी येणइयमिच्छत णाम । पञ्चवखादिणा पमाणेण पडिगेज्ञमाणस्स प्रस्थस्स देसंतरे कालंतरे ध एय सहवाबहारणाणुवत्तोदो, तस्स रूव परूयाण माहिमाणदंदज्झमाणाणं पि परप्पर विरुद्ध देसमाणामवचयरा णिच्छया भावादो इदमेव तच्चमिदं ण होवित्ति परिच्छेउ ण सक्कमिदि उहथ सावलंबी श्रहिष्यायो संसइदमिच्छतं णाम । विचारिज्जमा रामट्टाणमवदित्ता भावावो कथमिद मेरिस जेवेति णिच्छियदित्ति महिष्यायो प्रणाम मिच्छतं णाम । पत्र ३३ पर सामायिक और छेदोपस्थापना संयम का वर्णन करते हुए पंजिकाकार ने दोनों की एकता का freqण करने के लिये भूतबलि भट्टारक का उल्लेख किया है---" श्रदो जेय वोव्हमेगसस्स वि परूवणट्ठ भूदबलि भट्टा रहि दोन्हं एग जे गणसुद्धि गहणं कदं ।' पत्र ३४ की गाथा नं० ४८१ में दर्शन का लक्षण करते हुए पंजिकाकार ने श्राचार्य वीरसेन द्वारा चचित दर्शन विषय का उल्लेख निम्न शब्दों में किया है- "एसो वीरसेण भयवंताणस्यचागमग हिय साराणं च वक्खाण कमो दो । पुव्वाइरिय वक्खारग कर्म पुण एसा गाहा परुवेदि ।" संयमी जीवों का प्रमाण छठे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के जीवों का तीन कम नौ करोड़ बतलाया है। उन्हें मैं हाथ जोड़ कर नमस्कार करता हूँ। ये सब गाथाएं नम्बर क्रम के भेद के साथ जीवकाण्ड में पाई जाती हैं । पंजिका का पूरा अध्ययन करने पर अनेक विशेष बातों का बोध होगा । जीव काण्ड की पंजिका का अन्तिम मंगल इस प्रकार है जे ध्वणस्थति विमुहा साहिश्च मगच्चुदा, विट्ठ जेहि जय पमाण- ग्रहणं जोहण सम्म भदं । तेदितु थुवंतु किं ममतदो, प्रणारिसा जेइयो, से रज्जति अदीह साह सहलो सब्बो पयासो मम ॥ कर्मकाण्ड की पंजिका का आदि मंगल निम्न प्रकार है: मह जिण चला कमलं सुरमउलिमणिप्पहा जलुल्ल सियं । ह किरण केसरसभमंत देवी कयन्भमरं ॥ ग्रहकम्म भेदं परुवेमाणो विज्जाए भव्य छिति निमित्तमिदि काढूण मंगलं जिणिवं णमोक्कारं करेदि पणमिय सिरसा मि गुण रयण-विभूसणं महावीरं । सम्मत रयण - णिलयं पर्याडसमुविकलणं थोच्छं ॥ १ पण मिय सम्म रय खिलयं प्रप्पसरूष लबिलक्खण समीचीना मेव स्मरणं तस्स गिलय मासबं, कुदो गुणरयणभूणतादो। पर्यासमुक्कित्तणं । पयडीगं सारणावर सादीनं सम्म बिसेसेण किसणं कहणं जत्थ तं बोछ मिदि संबध्यते । जीवने गिरबसेसे परूविय सम्मत्ते, किमट्टमिवं परुविज्जये । ण, गुणाविवीस पवनेषु परुविज्जमारणेसु | मोह जोगभवा सकम्मभवाइच्चाइसु कम्माण महिहाणमेतमेव पविवं । एा समस्त सहवं प्रवो तब परुषि 1
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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