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________________ पांवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य T ये सुमति मौर सन्मति एक ही हैं। वादिराज ने 'सन्मति' की टीका के कर्ता का नाम 'सुमति के स्थान में सन्मति इस कारण दिया होगा क्योंकि यह नाम उन्हें प्राकर्षक लगा होगा। तत्त्व संग्रह के टीकाकार कमी प.367 में निम्नतियां दी : "सत्र समतिः कुमारिलायभिमतालोचनामात्र प्रत्यक्ष विचारणार्थमाह'-सुमति देव ने कुमारिल के पालोचना मात्र प्रत्यक्ष का निराकरण किया है। इससे सुमति देव का समय कुमारिल के बाद होना चाहिये । डा. भट्टाचार्य ने सुमति का समय सन् ७२० के आस-पास का निर्धारित किया है । कर्कराज सुवर्ण के दान पत्र (तामपत्र) में मल्लबादी के शिष्य सुमति और सुमति के शिष्य अपराजित का उल्लेख है, जो मूलसंघ के सेनान्वय के थे। शक सं०७४३ (वि० सं०८७८) में अपराजित को नवसारी की एक जैन संस्था के लिये यह दान दिया गया था । संभव है यही सुमति सन्मति-टीका के कर्ता हों ऐसा प्रेमी जी ने जैन साहित्य और इहिास के पृष्ठ ४१६ में लिखा है। पर मेरी राय में अपराजित के गुरू सुमति देव से शान्तरक्षित द्वारा पालोचित सुमति देव भिन्न ही हैं। क्योंकि शान्त रक्षित का समय सन् ७०५ से ७६२ तक माना जाता है। इन्होंने सन् ७४३ में तिव्वत की यात्रा की थी। इसके पूर्व ही वे अपना तत्त्व संग्रह बना चुके होंगे। यदि यह विचार सही है तो दोनों सूमति देव एक नहीं हो सकते । तत्त्व संग्रह में उल्लिखित सुमति पूर्ववर्ती हैं और अपराजित के गुरु सुमति देव का समय सन् ८५३ के लगभग होता है। सुमति देव समति देव-यह मूल संघ सेनान्वय के विद्वान मल्लबादि के शिष्य थे। सुमति देव के शिष्य अपराजित जिन्हें शक सं०७४३ (वि० सं०८८७) में नवसारी जि. सूरत के जैन मन्दिर के लिये एक जमीन दान की गई थी। अतएव सुमति देव का समय अपराजित के समय से २५ वर्ष कम, वि० सं० ८५३ होना चाहिये । अर्थात प्रस्तुत सुमति देव हवीं शताब्दी के विद्वान जान पड़ते हैं। . कुमारसेन इनका स्मरण पुन्नाटसंघीय जिनसेन ने (शक सं० ७०५ ई० ७५३) हरिवंशपुराण में निम्न शब्दों में • किया है। माकुपार यशो लोके प्रभाषन्द्रोवयोम्ज्वलम् । गुरोः कुमारसेनस्य विचरत्यजितारमकम् ॥ चन्द्रोदय के रचयिता प्रभाचन्द्र के पाप गुरू थे। प्रापका निर्मल सुयश समुद्रान्त विचरण करता था । चामुण्डराय पुराण के १५वे पद्य में भी इनका स्मरण किया गया है। डा. ए. एन उपाध्याय ने लिखा है कि ये मल गुण्ड नामक स्थान पर प्रात्म त्याग को स्वीकार करके कोपणाद्रि पर ध्यानस्य हो गये तथा समाधि पूर्वक मरण किया। प्राचार्य विद्यानन्द ने अपनी अष्ट सहस्त्री की अन्तिम प्रशस्ति के दूसरे पद्य में अष्टसहस्त्री को कष्ट मस्त्री बतलाते हुए कुमार सेन की उक्तियों से प्रष्ट सहस्त्री को प्रवर्धमान बतलाया है । इससे स्पष्ट है कि कुमार १. कष्ट सहस्त्री सिद्धा साष्ट सहस्रीयमन मे पुष्पात् । अश्वदभीष्ट सहरूलीं कुमारसनोक्ति वर्षमानार्थी ॥२॥
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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