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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ रहने पर भी पर्वत से नदियाँ प्रवाहित होती हैं । परन्तु जल से लबालब भरे हुए समुद्र से एक भो नदो नहीं निकलतो तुंगात् फलं यत्तव किंचनाच्च, प्राप्य समधान्न धनेश्वरावः। निरम्भसोऽप्युश्चतमाविवारे मकाऽपि निर्यात धुनी पयोधेः ।।१६॥ इस तरह स्तुति कर कवि दीनता से वर की याचना नहीं करता। क्योंकि भगवान उपेक्षक हैं. राग द्वेष से रहित हैं । वृक्ष का पाश्रय करने वालों को स्वयं छाया प्राप्त होती है। छाया की याचना करने से क्या लाभ । यदि देने की माप की इच्छा ही हो तो मैं प्रापसे यही चाहता हूं कि पाप में मेरो भक्ति बनी रहे। मुझे विश्वास है कि माप इतनी कृपा अवश्य करेंगे; क्योंकि विद्वान पुरुष अपने आश्रितों की इच्छानों को पूर्ण करते ही हैं। इति स्तुति देव विषाय बन्मावर न याचे श्वमपेक्षकोऽसि । छायात संभयतः स्वतः स्यात्कश्छायया याचितयात्मलाभः ॥३८॥ प्रथास्ति विरसा यदि वोपरोधस्त्वम्यव सक्ता विश भक्तिद्रसिम् । करिष्यते देव तथा कृपा मे को वात्मपोष्ये सुमुखो म सुरिः।।३।। समय नाममाला के अन्त में एक पद्य मिलता है जिसमें प्रकलंक देव का प्रमाण शास्त्र, पूज्यपाद या देवनन्दि का लक्षण शास्त्र (व्याकरण और धांजर का हिसन्धाः , ये तीन अपश्चिम रत्न हैं। यह श्लोक धनंजय द्वारा रचा नहीं जान पड़ता। उससे इसकी महत्ता का भान होता है। चूंकि राजशेखर प्रतीहार राजा महेन्द्रपाल देव के उपाध्याय थे। महेन्द्रपाल का समय वि० सं० १६० के लगभग है। अत: धनंजय ९६० से पूर्ववर्ती हैं। बीरसेनाचार्य ने अपनी धवला टीका शक सं०७३८ में समाप्त की है। उसकी जिल्द, ६१०१४ में इति शब्द को व्याख्या में धनंजय की भनेका नाममाला का ३६वां पद्य उद्धत किया है : हेता वेवम्प्रकाराची व्यवच्छेदे विपर्यये ।। प्रादुर्भाव समाप्तेष इति शम्य विधाः ॥ इससे धनंजय कवि का समय ८०० ईसवी निर्धारित किया जा सकता है। सुमति (सन्मति) सुमतिवेष (सन्मति) अपने समय के प्रसिद्ध दिगम्बराचार्य थे। पाठवीं शताब्दी के बौद्ध विद्वान शान्तर. क्षित ने 'तत्त्वसंग्रह' में 'स्याद्वादपरीक्षा (कारिका १२६२ प्रादि) और वहिरर्थ परीक्षा (कारिका १९४० आदि) में सुमति नामक दिगम्बराचार्य के मत की समालोचना की है। इनके दो ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है। वादिराज सरि ने पार्श्वनाथ चरित के प्रारम्भ में कवियों का स्मरण करते हुए लिखा है कि नमः सन्मतये तस्मै भवकपनिपातिनाम् । ___ सन्मति विवृता येन सुखधाम प्रवेशिनी ॥२२।। उन सन्मति (प्राचार्य और भगवान महावीर) को नमस्कार हो जिन्होंने भवकप में पड़े हुए लोगों के लिये सुखधाम में पहुंचाने वाली सन्मति को विवृत किया-सन्मति की बत्ति या टीका लिखी। दूसरा उल्लेख श्रवण वेल्गोल की मल्लिषेण प्रशस्ति में 'सूमति देव' नामक विद्वान का उल्लेख है जिन्होंने 'सुमति सप्तक' नाम का ग्रन्थ बनाया था "समति देय मम स्तुतयेन वस्समतिसप्तकमाप्तनयाकृतं । परिहृता पथतस्थपथापिना समति कोटिविवतिभवातिहत् ।।"
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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