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________________ १५४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग-२ चौथे प्रस्ताव में साड़े ग्यारहकाओं द्वारा त्रिरूप का निराकरण, अन्यथा नुपपत्तिरूप हेतु का समर्थन, और हेतु के उपलब्धि अनुपलब्धि प्रादि भेदों का विवेचन तथा कारण, पूर्वचर, उत्तरचर, और सहचर हेतुनों समर्थन पांचवें प्रस्ताव में साड़े दशकारिकामों में विरुद्धादि हेत्वाभासों का निरूपण किया गया है। छठे प्रस्ताव में १२ कारिकानों द्वारा वाद का लक्षण, जय-पराजय व्यवस्था का स्वरूप, जाति का लक्षण प्रादि याद सम्बन्धि कथन दिया है । और अन्त में धर्मकीर्ति आदि द्वारा प्रतिवादियों के प्रति जाड्यादि अपशब्दों के प्रयोग का सबल उत्तर दिया है। सातवें प्रस्ताव में १० कारिकामों में प्रवचन का लक्षण, सर्वज्ञता का समर्थन, अपौरुषेयत्व का खंडन, तत्त्वज्ञान चारित्र की मोक्ष हेतृता प्रादि प्रवचन सम्बन्धी विषयों का विवेचन किया है। आठवें प्रस्ताव में १३ कारिकानों में सप्तभंगी का निरूपण और नैगमादिनयों का कथन है। नौवें प्रस्ताव में २ कारिकाओं द्वारा प्रमाण मय और निक्षेप का उपसंहार किया गया है। इस तरह यह ग्रंथ अपनी खास विशेषता रखता है । स्व० न्यायाचार्य पं० महेन्द्र कुमार जी ने अकलंक देव की इस महत्वपूर्ण कृतिका सम्पादन कर जैन संस्कृति का बड़ा उपकार किया है। यह गंथ अकलंक नन्थत्रय में प्रकाशित है। इस तरह प्रकलंक देव की सभी कृतियाँ महत्वपूर्ण हैं । और अकलंक की यह जैन न्याय को अपूर्व देन है। अकलङ्क नाम के अन्य विद्वान प्रकलंक नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। जैन साहित्य में अकलंक नाम के अनेक विद्वानों का उल्लेख मिलता है। उनका यहां संक्षिप्त परिचय दिया जाता है : प्रकलंकचन्द्र-मन्दि संघ-सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगण, और कुन्दकुन्दान्वय की पदावली के ७३वें गह, वर्षमान की कीति के पश्चात् और ललित कीतिके पूर्व उल्लिखित उक्त पट्टायली के अनुसार इनका समय ११९४१२०० ईस्वी है। -(ग्वालियर पट्टान्तर्गत) प्रकल विद्य-मूलसंघ देशीयगण पुस्तक गच्छ कोण्ड कुन्दान्वय के कोल्हापुरीय माघनन्दि के प्रशिष्य, देवकीति, (जिनका वास ११६३ ई० में हुमा) के शिष्य, शुभचन्द्र विद्यदेव और गुण्डविमुक्तवादि चतूं मुख रामचन्द्र विद्य के सघर्मा, माणिक्य भंडारि मरियाने, महाप्रधान दण्डनायक भरत भौर श्रीकरण हेग्गडे चिमय्य के गुरुवादि वांकुश मकलंक विद्य थे 1' इनका समय विक्रम की १२वीं शताब्दी है। प्रककलं पण्डित-इनका उल्लेख श्रवण बेलगोलस्थ चन्द्रगिरि शिलालेख नं० १६६ में, जो ईस्वी सन १०९८ में उत्कीर्ण हुमा है पाया जाता है। अकसंकदेव-इन्होंने दबिड़ संघ नन्द्यान्वय के वादिराज मुनि के शिष्य महामण्डलाचार्य राजगुरु पुष्पसेन मनि के साथ शक सं० ११७८ (सन् १२५६) में हुम्मच में समाधि मरण किया था। यह सम्भवतः मुनि पुष्पसन के सषर्मा थे। और इनके शिष्य गुणसेन सैद्धान्तिक थे। प्रकलंकमुलिप-नन्दिसंघ-बलात्कारगण के जयकीर्ति के शिष्य, चन्द्रप्रभ के सधर्मा, विजयकोति, पाल्यकीति विमलकीप्ति, श्रीपालकीति और मायिका चन्द्रमती के गुरु ये । संगीतपुर नरेश सालुवदेवराय इनका भक्त पाबंकापुर में इन्होंने नप मापन एल्लप के मदोन्मत्त प्रधान गजेन्द्र को अपने तपोबल से शान्त किया था। इनका स्वर्गवास शक सं० १४१७ (सन् १५३५ ई.) में हुआ था। १. श्रवण बेलगोल शि० नं० (६४) १० २८, न्याय कुमुवचन्द भा. १ प्रस्ता० पू० २५ । २. श्रवण वेलगोल शि.नं. १६६ १. ३०६। ३. एपीमाफिया, कण टिका, ८, नागर (४) ४. प्रशस्ति संग्रह आरा पृ० १२६, १३० ।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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