SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य जिस तरह पट के ताना पोर बाना दोनों ही अलग-अलग निरपेक्ष रह कर शीत निवारण नहीं कर सकते। किन्तु जब ताना बाना सापेक्ष होकर पट का रूप धारण कर लेते हैं, तब वे शीत के निवारण में समर्थ हो जाते है उसी तरह नियतवादों का आग्रह रखने वाले परस्पर निरपेक्ष नय सम्यक्तत्व को नहीं पा सकते। किन्त बहमूल्य मणियां यदि एक सूत्र में न पिरोई गई हों, और न परस्पर घटक हों, तो वे रत्नावली नहीं कहला सकती। जिस तरह एक सूत्र में पिरोई गई मणियां रत्नावली हार बन जाती हैं। उसी तरह सभी नय सापेक्ष होकर सम्यकपने को प्राप्त हो जाते हैं। निक्षेप मोमोसा-में निक्षेप का स्वरूप और उसके भेदों का विचार किया गया है। निक्षेप के चार भेद है, नाम स्थापना, द्रव्य पौर भाव । उनका प्रयोजन अप्रकृत का निराकरण, प्रकृत का निरूपण, संशय का विनाश मौर तत्वार्थ के निश्चय करने में निक्षेप की सार्थकता है।' अनन्त धर्मात्मक वस्तु को व्यवहार में लाने के लिये निक्षेप का प्रयोजन प्रावश्यक है। गुण रहित वस्तु में व्यवहार के लिए अपनी इच्छा से की गई संज्ञा नाम है। काष्ट कर्म, पुस्तकर्म, चित्र कर्म और अक्षनिक्षेप में यह वही है इस प्रकार स्थापित करने को स्थापना कहते हैं। जो गुणों द्वारा प्राप्त किया जायेगा या प्राप्त होगा वह द्रव्य है जैसे राजपुत्र को राजा कहना । भविष्यत पर्याय की योग्यता या अतीत-पर्याय के निमित्त से होने वाले व्यवहार का आधार द्रव्य निक्षेप है। जैसे जिसका राज्य चला गया, उसे वर्तमान में राजा कहना अथवा युवराज को अभी राजा कहना। वर्तमान पर्याय विशिष्ट द्रव्य में तत्पर्याय मलक का व्यवहार का आधार भाव निक्षेप है। इस सब संक्षिप्त कथन से ग्रन्थ की महत्ता का आभास मिल जाता है । इस तरह अकलंक देव की कृतियां जैन शासन की महत्वपूर्ण और मूल्यवान कृतियां हैं। प्रमाण संग्रह-इस ग्रन्थ का जैसा नाम है तदनुसार उसमें प्रमाणों, युक्तियों का संग्रह है। इस ग्रन्थ की भाषा और विषय दोनों ही जटिल और दुरूह हैं। यह लघीस्त्रय और न्यायविनिश्चय से कठिन है। ग्रन्थ प्रमेय बहल है। लगता है इसकी रचना न्याय विनिश्चय के बाद की गई है, क्योंकि इसके कई प्रस्तावों के अन्त में न्याय विनिश्चय की अनेक कारिकाएं विना किसी उपक्रम वाक्य के पाई जाती हैं । इस ग्रन्थ की नोमि कारिका में प्रयत'प्रकलंक महीयसाम्' वाक्य तो प्रकलंक देव का सूचक है ही, किन्तु इसकी प्रौढ़ शैली भी इसे प्रकलंक देव की अन्तिम कृति बतलाती है, कारण कि इसकी विचारधारा गहन हो गई है। जान पड़ता है इसमें उन्होंने अपने अब शिष्ट विचारों को रखने का प्रयास किया है। इसमें हेतुओं को उपलब्धि अनुपलब्धि आदि अनेक भेदों का विस्तत विवेचन किया गया है। जान पड़ता है इस पर प्राचार्य अनन्तवीर्य कृत प्रमाण संग्रहालंकार नाम को कोई टीका रही है जिसका उल्लेख अनन्तवीर्य ने स्वयं किया है। प्रमाण संग्रह में प्रस्ताव और साढ़े सतासी ८७१ कारिकाएं हैं। इस पर प्रकलंक देव ने कारिकामों के अतिरिक्त पूरक वृत्ति भी लिखी है। इस तरह गद्य-पद्यमय इस ग्रंथ का प्रमाण लगभग अष्टशती के बराबर हो हो जाता है। प्रथम प्रस्ताव में कारिकायें हैं। जिनमें प्रत्यक्ष का लक्षण श्रुत का प्रत्यक्ष अनुमान और भागमपूर्वक, और प्रमाण का फल आदि का निरूपण है। दूसरे प्रस्ताव में भी कारिकायें हैं, जिनमें परोक्ष के भेदस्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क प्रादि का निरूपण है। तीसरे प्रस्ताव में १० कारिकायों द्वारा अनुमान के अवयव, साध्य साधन साध्याभास का लक्षण, सदसदेकान्त में साध्य प्रयोग की प्रसम्भयता, सामान्य विशेषात्मक वस्तु की साध्यता और उसमें दिये जाने वाले संशयादि पाठ दोषों के निराकरण प्रादि का कथन है। १. अवगयणि वारण पयदस्य परूवणा णि मित्त च । संशयविणासरण? तच्चत्यवधारणट्ट च ॥ -धवला. पु.१पृ०३११ २. सिद्धि विनिश्चय टीका पु०८, १०, १३० आदि
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy