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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
भी मिलती है । सम्भव है दोनों १०-२० वर्ष के अन्तराल को लिये हुए सम सामयिक हों। इस सम्बन्ध में अभी अन्य प्रमाणों के अन्वेषण की आवश्यकता है ।
नेमिनिर्वाण काव्य पर एक पंजिका उपलब्ध है। जिसके कर्ता भट्टारक ज्ञान भूषण हैं। पुष्पिका वाक्य में उसे नेमि निर्वाण महाकाव्य की पंजिका लिखा है । 'इति श्री भट्टारक ज्ञान भूषण विरचितायां श्री नेमिनिर्वाण महाकाव्य पंजिकायां प्रथम सर्गः । पंजिका की प्रतिलिपि नयामन्दिर धर्मपुरा दिल्ली के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है।
हरिसिंह मुनि
मुनि हरिसिंह का उल्लेख सुदर्शन चरित्र के कर्त्ता नयनन्दी ने सकल विधि विधान को प्रशस्ति में किया है । नन्दी इनके समीप ही रहते थे। इनकी प्रेरणा से उन्होंने 'सयल विह्नि विहाण काव्य की रचना की है। हरि सिंह भी धारा नगरी के निवासी थे। चूंकि नयनन्दी ने सं० ११०० में सुदर्शन चरित्र समाप्त किया है। अतः इनका समय भी विक्रम की ११ वीं शताब्दी है !
हंससिद्धान्त देव
प्रस्तुत श्राचार्य हंससिद्धान्त देव सोमदेवाचार्य के नीतिवाक्यामृत को रचना के समय लोक में प्रसिद्ध थे । और जैन सिद्धान्त के निरूपण में प्रमाण माने जाते थे। जैसा कि नीति वाक्यामृत की प्रशस्ति के निम्न वाक्य से "न भवसि समयोको हंस सिद्धान्त देवः ।" जाना जाता है। इनका समय सोमदेव की तरह विक्रम की १०वीं या ११वीं शताब्दी का पूर्वार्ध जान पड़ता है।
हर्षनन्दी
यह रामनन्दी की गुरु परम्परा के विद्वान् नन्दनन्दी के शिष्य थे। और जीतसार समुच्य के कर्ता वृषभ नन्दी के गुरु भाई थे । ग्रत एवं उन्होंने अपने ग्रन्थ प्रशस्ति के 'अनुज हर्षनन्दिना सुलिख्य जोतसार शास्त्रमुज्वलोद्घृतं ध्वजायते" निम्न वाक्यों में उनका अनुजरूप से उल्लेख किया है। हर्ष नन्दी ने जीतसार समुच्च की सुन्दर प्रति लिखकर दी थी। इनका समय विक्रम की दशवीं या ग्यारहवीं शताब्दी का प्रारम्भिक भाग होगा ।
महामुनि हेमसेन
यह द्रविड संघस्थ नन्दिसंघ, अमंगलान्वय के विद्वान् थे जो शास्त्र रूपी समुद्र के पारगामी थे। जिनके वचन रूप वज्राभिघात से प्रवादियों के मदरूपी भूभृत खण्डित हो जाते थे। जैसा कि निम्न पक्षों से जाना जाता है: --
श्रीमद्र विल-संधेऽस्मिन् नन्दिसंधेऽत्यरुङ्गलः । प्रन्दयो भाति योऽशेषः- शास्त्र - वाराशि-पारमै || यद् वागवज्राभिघातेन प्रवादि-मद-भूभृतः । सच्चूण्णितास्तु भातिस्म हेमसेनो महामुनिः ।।
ऐसे महामुनि हेमसेन थे । हुम्मच का यह लेख काल निर्देश से रहित है, फिर भी इसे सन् १०७० ई० का कहा जाता है । अतः हेमसेन का समय ईसा की ११वीं शताब्दी का उपान्त्य भाग जान पड़ता है ।
भावसेन
यह काष्ठा संघ लाडवागड गच्छ के प्राचार्य थे । गोपसेन के शिष्य और जयसेन ( १०५५) के गुरु थे, जिन्हों १ देखी अनेकान्त वर्ष १४ किरण १० २७ पुराने साहित्य की लोज नाम का लेख