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________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शतानी के विद्वान, और आचार्य ३१५ "स बर्श जगन्नाथं ततो विलसन्केवल-बोध-सम्पदा । प्रवलुप्त तमः प्रदीप प्रभया ननक्त मिवात्ममन्दिरम् ॥१४-४५ अन्तिम १५ वे सर्ग में केवलज्ञान प्राप्त होते ही देवों ने नेमि तीर्थंकर की स्तुति की और समवसरण की रचना की। भगवान नेमिनाथ ने सप्ततत्व और कर्मबन्धादि विषयों का मार्मिक उपदेश दिया। पौर विविध देशों में विहार कर जन-कल्याण के आदर्श मार्ग को बतलाया। उससे जगत में अहिंसा और सुख-शान्ति का प्रसार हमा। अन्त में योग निरोधकर अवशिष्ट अधाति कर्म का विनाशकर अविनाशी स्वास्मोपलब्धि को प्राप्त किया। इस तरह यह काव्य बड़ा ही सून्दर सरल और रस अलंकारों से युक्त है। सुराष्ट्र देश में पृथ्वी का सुन्दर वर्णन करते हुए समुद्र के मध्य में वसी द्वारावती का वर्णन अत्यन्त सुन्दर बन पड़ा है। उसमें श्लिष्टोपमा का उदाहरण बहुत ही सुन्दर हुआ है। परिस्फुरन्मण्डलपुण्डरीकच्छायापनीतातपसंप्रयोगः।। या राजहंसरुपसेव्यमाना, रांजीविनीवाम्बूनिधौ रराजे॥३७ जो नगरी समुद्र के मध्य में कमलिनी के समान शोभायमान होती है। जिस प्रकार कमलिनी विकसित पुण्डरीकों-कमलों-की छाया से जिनकी प्राताप व्यथा शान्त हो गई है ऐसे राजहंसा हंसविशेषो से सेवित होती है। उसी प्रकार वह नगरी भी तने हुए विस्तुत पुण्डरीकों-छत्रों-की छाया से पातप व्यथा दूर हो गई है ऐसे राजहंसों बड़े बड़े श्रेष्ठ राजामों से सेवित थी--उसमें अनेक राजा महाराजा निवास करते थे। कवि का सम्प्रदाय दि० जन था, क्योंकि उन्होंने मल्लिनाथ तीर्थंकर को कुरुराज का पुत्र माना है, पुत्री नहीं, जैसा कि श्वेताम्बर लोग मानते हैं। विरोधामास अलंकार के निम्न उदाहरण से स्पष्ट है : तप: कुठार-क्षत कर्मबल्लि-मल्लिनिनोवः श्रियमातनोतु। कुरोः सुतस्यापि न यस्य जातं, शासनस्वं भुवनेश्वरस्य ॥१६॥ इसमें बतलाया है कि-'तपरूप कुठार के द्वारा कर्मरूप देल को काटने वाले वे मल्लिनाथ भगवान तुम सबको लक्ष्मी को विस्तृत करें, जो कुरु के पुत्र होकर भी दुःशासन नहीं थे, पक्षमें दुष्ट शासन वाले नहीं थे। . मल्लिनाथ भगवान कुरुराज के पुत्र तो थे, किन्तु दुःशासन नहीं थे यह विरोध है, उसका परिहार ऐसे हो जाता है, कि मल्लिनाथ के पिता का नाम कुरुराज था, इसका कारण वे कुरुराज पुत्र कहलाये, किन्तु वे दुःशासन नहीं थे- उनका शासन दुष्ट नहीं था-उनके शासन के सभी जीव सुख-शांति से रहते थे। इस पद्य में तप और कूठार, कर्म और बल्लि का रूपक तथा बल्लि और मल्लि का अनुपास भी दृष्टव्य है। वास्तव में अलंकार भावाभिव्यक्ति के विशेष साधन हैं। प्रत्येक कवि रचना में सौन्दर्य और चमत्कार लाने के लिये अलंकारों की योजना करता है । कवि वाग्भट ने भी अपनी रचना में सौन्दर्य विधान के लिये अलंकारों को नियोजित किया है। प्रलंकारी के साथ रसों के सन्दर्भ की संयोजना उसे और भी सरस बना देती है । इससे पाठकों का केवल मनोरंजन ही नहीं होता किन्तु उन पर काव्य मोर कवि के श्रम का प्रभाव भी अंकित होता है। रचनाकाल कवि वाग्भट ने अपनी गुरुपरम्परा और रचनाकाल का ग्रन्थ में कोई उल्लेख नहीं किया। किन्तु वाग्भट्रालकार के कवि वाग्भट (सं० ११७६) ने अपने ग्रन्थ में नेमिनिर्माण काव्य के अनेक पद्य उदधत किये हैं । नेमिनिर्वाण काथ्य के छठे सर्ग के ३ पद्य-'कान्तारभूमी' 'जुहुर्वसन्ते' और नेमिविशाल नयनों श्रादि ४६, ४७ और ५१ नं० के पद्य वाग्भट्टालंकार के चतुर्थ परिच्छेद के ३५, ३६ और ३२ नं. पर पाये जाते हैं। और सातवें सर्ग कावरणा प्रसन निकरा' आदि २६ नं. का पद्य चौथे परिच्छेद के ४० नं. पर उपलब्ध होता है। इससे स्पष्ट है कि नेमिनिर्वाण काव्य के कर्ता कवि वाग्भट वाग्भट्टालंकार के कर्ता से पूर्ववर्ती हैं। उनका समय संभवतः वि. की ११वीं शताब्दी होना चाहिए। यहां यह विचारणीय है कि धर्मशर्माभ्युदय पौर नेमिनिर्वाण काव्य का तुलनास्मक अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि दोनो का एक दूसरे पर प्रभाव रहा है। दोनों की कहीं-कहीं शब्दावली
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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