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________________ ५४२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ रविवार के दिन पूर्ण किया था । धर्मकीर्ति ने इन ग्रन्थों में अपनी गुरु परम्परा का उल्लेल किया है, वह निम्न प्रकार है- देवेन्द्रकीति, त्रिलोक कीर्ति, सहस्त्रकीति, पद्मनन्त्री, यशः कोति, ललितकीति और धर्मकोति । कवि का समय विक्रमको १७वीं शताब्दी का उत्तरार्ध हैं। कवि की अन्य रचनाए अन्वेषणीय हैं । भ० गुणचन्द्र यह मूल संघ सरस्वतीच्छ बलात्कार गण के विद्वान थे । यह भ० रत्नकीति के द्वारा दीक्षित और यशः कीति के शिष्य थे। इन के पूजा ग्रन्थ ही उपलब्ध हैं। अन्य कोई महत्व की रचनाएं अवलोकन करने में नहीं थाई | यह १७वीं शताब्दी के विद्वान थे। भ० गुणचन्द्र ने वाग्वर (वागड ) देश के सागवाडा के निवासी कुंबड या हूमड वंशी सेठ हरषचन्द दुर्गादास की प्रेरणा से उनके व्रत के उद्यापनार्थ सं० १६३३ में वहां के प्रादिनाथ चैत्यालय में ८०० श्लोकों में 'अनतजिन व्रत पूजा' की रचना की थो संशय फुलके ( १६३३) पक्षेऽवदाते तिथी, पञ्च गुरुवासरे पुरुजिने श्री शाकभागपुरे । श्रीमद्ध ुम्बड वंश पद्म सविताहर्षाख्यदुर्गा वणिक्, सोऽयं कारितवाननंत जिनसपूजांबरे वाग्वरे ॥ जैन ग्रन्थ प्रदा० सं० २०० १० २४ मौनव्रत कथा और अन्य अनेक पूजा ग्रन्थ इनके बनाये हुए कहे जाते हैं, पर सामने न होने से उनके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता । भट्टारक रत्नचन्द्र यह हुंदड जाति के महीपाल वैश्य और चम्पा देवी के पुत्र थे । तथा मूलसंघ सरस्वतिगच्छ के भट्टारक सकलचन्द्र के शिष्य थे। इन्होंने अपनी गुरु परम्परा के भट्टारकों का उल्लेख निम्न प्रकार दिया है पद्मनन्दी सकल कीर्ति, भुवनकीति, रत्नकीति, मंडलाचार्य यशः कीर्ति, गुणचन्द्र, जिनचन्द्र, सकलचन्द्र और रत्नचन्द्र । रत्नचन्द्र स्याद्वाद के जानकार थे। इनकी एकमात्र रचना सुभीमचक्रवर्ती चरित्र है, जो सात सगों में समाप्त हुआ है । कवि ने इस ग्रंथ को वि० सं० १६०३ में भाद्रपद शुक्ला पंचमी गुरुवार के दिन समाप्त किया यह विक्रम की १७वीं (और ईसा की १६२७ सत्रहवीं शताब्दी के विद्वान थे । । भट्टारक रत्न चन्द्र ने यह ग्रन्थ खंडेलवाल वंशोत्पन्न हेमराज पाटनी के लिये बनाया था, जो सम्मेद शिखर की यात्रार्थ भ० रत्नचन्द्र के साथ गये थे । हेमराज की धर्मपत्नी का नाम 'हमोर' था । यह वाग्वर देवसेस्थित सागवाड़ा के निवासी थे । कवि ने ग्रन्थ बुध तेजपाल की सहायता से बनाया था। । I वादि विद्यानन्द विद्यानन्द नन्दि संघ, कुन्दकुन्दान्वय बलात्कारगण और भारतीगच्छ के प्राचार्य थे । यह अपने समय के १. यष्टशते चैकानसप्तत्यधिके (१६७१) रखो । अश्विने कृष्ण पंचां ग्रन्थोऽयं रचितं मया ।।" - हरिवंश पु० प्र० २. संवते पोसापाने व्यशीति वत्सरांकिते । मासि भाद्र पदे श्वेत पंचम्पां गुरुवार के ॥११ ३. ग्रन्थ का पुष्पिका वाक्य इस प्रकार है :-- इति श्री सुभमचरित्रे सूरि श्रीसकल चन्द्रानुचर भट्टारक श्री रत्नचन्द्र विरचिते विबुधतेजपाल हाय सोप श्रीखण्डेल बालान्वय पण गोत्राम्बरादित्य श्रेष्ठि हेमराजनामकिले सुभीमनरकप्राप्ति वर्णनो नाम सप्तमस (जैन ग्रन्थ प्र० ५० ६२ )
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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