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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
विक्रम की दशवीं शताब्दी का अन्तिम भाग और ११वीं शताब्दी का पूर्वाध है। क्योंकि उन्होंने अपना महापुराण सिद्धार्थं संवत्सर शक सं८८१ में प्रारम्भ किया था । उस समय मेलपाटी या मेलाडि में कृष्णराज मौजूद थे। तब पुष्पदन्त मेलपाटी में महामात्य भरत से मिले और उनके अतिथि हुए और उन्होंने उसी वर्ष में महापुराण शुरु कर उसे शक सं० ८८७ (सन् १६५) वि० सं० १०२२ में समाप्त किया ।
समय विचार
महाकवि पुष्पदन्त बरार प्रान्त के निवासी थे। क्यों कि उनकी रचना में महाराष्ट्र भाषा के अनेक शब्द पाये जाते हैं। जिनका उपयोग उसी देश में होता है । पं० नाथूराम जी प्रेमी ने लिखा है कि ग० वा० तगारे एम.ए. बी. टी. नाम के विद्वान ने पुष्पदन्त को मराठी भाषा का महाकवि लिखा है । ओर उनकी रचनाओं में से ऐसे बहुत से शब्द चुनकर बतलायें हैं, जो प्राचीन मराठी भाषा से मिलते जुलते हैं। मार्कण्डेय ने अपने 'प्राकृत सर्वस्व' में अपभ्रंश भाषा के नागर, उपनागर और वाचट तीन भेद किये है। इनमें वाचट को लाट (गुजरात) और विदर्भ ( वरार) की भाषा बतलाया है। इसमें पुष्पदत्त के ग्रन्थों की भाषा वाचट होनी चाहिये ।
पुष्पदन्त के समकालीन राष्ट्रकूटवंश के राजा कृष्ण तृतीय हैं। कवि पुष्पदन्य ने स्वयं अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ के समय तीसरे कडक में कृष्ण राज तृतीय का मेलपाटी में रहने का उल्लेख किया है और उसे चोड देश के राजा का शिर तोड़ने वाला लिखा है
उaa जूड् भूभंग भी तोडेध्विणु चोडहो तणउसीसु । भुक्कराम रायाहिराउ, जहिअच्छा तुडिंग महाणुभाउ । तं वीणदिण्णधण कणय पयर, महि परि भमंतु मेपाणियच ॥
वे महाप्रतापी सार्वभौम रजा थे। इनके पूर्वजों का साम्राज्य उत्तर में नर्वदा नदी से लेकर दक्षिण में मैसूर तक फैला हुआ था। जिसमें सारा गुजरात, मराठी म० प्र० और निजाम राज्य शामिल था। मालवा और बुन्देलखण्ड भी उनके प्रभाव क्षेत्र में थे। इस विस्तृत साम्राज्य को कृष्ण तृतीय ने और भी अधिक बढ़ाया और दक्षिण का सारा अन्तरोप भी अपने अधिकार में कर लिया था। उन्होंने लगभग ३० वर्ष राज्य किया है। वे शक सं० ८६१ के ग्रास-पास गद्दी पर बैठे होंगे। वे कुमार अवस्था में अपने पिता के जीते जी राज्य कार्य संभालने लगे थे । पुष्पदन्त शक सं०८८१ में इन्हीं के राज्य में मेलपाटी पहुंचे थे और वे राजा कृष्ण की मृत्यु के बाद भी वहां रहे हैं। क्योंकि धारा नरेश हर्षदेव ने खोटिंग देव की राज्यलक्ष्मी को लूट लिया था। धनपाल ने अपनी 'पायलच्छी नाम माला' में लिखा है कि वि० सं० १०२६ में मालव नरेन्द्र में मान्यखेट को लूटार इसका समर्थन उदयपुर ( ग्वालियर) के शिलालेख में अंकित परमार राजाओं की प्रशस्ति से भी होता है । मेलपाटी के लूटे जाने पर पुष्पदन्त को भी उसका बड़ा खेद हुआ और उन्होंने भी उसका उल्लेख निम्न पद्य में किया है
दीनानाथ धनं सदाबहुजनं प्रोस्फुल्ल वल्लोचनं । मान्यखेटपुरं पुरंदरपुरी लोहरं सुन्दरम् । धारानाथ नरेन्द्र कोप- शिखिना दग्धं विदग्ध प्रियं । adara व करिष्यति पुनः श्री पुष्पवन्सः कविः ।।
शक सं० ८६४ में मान्यखेट के लूट लिये जाने के बाद भी पुष्पदन्त वहां रहे हैं । समय समाप्त हुआ जब मान्य वेट लूटा जा चुका था। इससे स्पष्ट है कि शक सं०
कवि का जसहचरिउ उस ८१ से ८७४ तक १३ वर्ष
१. उक्कुरड- उकिरडा (धूरा), गंजोल्लिय-गांजलेले (दुखी), विक्खिल्ल-चिखल (कीचड़ ), तुष्प- तूप (घी), के.ड फेडले (लौटाना । बोक्कड़ बोकड (बकरा ) आदि, देखो सह्याद्रि मासिक पत्र अप्रैल १९४९ का अंक, पृ० २५२, ५६ । २. विक्कमकालस्स गए अतीसुत्तरे सहस्सम्मि मालवणरिद घाडीए लुटिए मण्डखेडम्मि २७६ ३. श्री हर्षदेव इति खोट्टिगदेव लक्ष्मी, जग्राह यो मुनिगादसमप्रतापः ||