SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्वारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य करने वाले, भरतमन्त्री द्वारा सम्मानिल, अपने काव्य प्रबन्ध से लोगों को पुलकित करने वाले, धो डाला है पापरूप कीचड़ जिसने ऐसे अभिमान मेरु पुष्पदन्त ने जिन मक्ति पूर्वक काधन संवत्सर में महापुराण की रचना की। पुष्पदन्त के पिता का नाम केशव भट्ट और माता का नाम मुग्धादेवी था। यह काश्यप गोत्री ब्राह्मण थे। इनका शरीर अत्यन्त कृश (दुबला-पतला) और वर्ण सांवला था । यह पहले भव मतानुयायी थे। किन्तु बाद में किसी दिगंबर विद्वान के सानिध्य से जैनधर्म का पालन करने लगे थे। बे जैनधर्म के बड़े श्रद्धालु मौर अपनी काव्य कला से भव्यों के चित्त को अनुरंजित करने वाले थे। जैनधर्म के सिद्धान्तों और ब्राहमण धर्म के सिद्धान्तों के विशिष्ट विद्वान थे। प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश भाषा के महापण्डित थे। इनका अपभ्रंश भाषा पर असाधारण अधिकार था । उनकी कृतियां उनके विशिष्ट विद्वान होने की स्पष्ट सूचना करती हैं। कबिवर बड़े स्वाभिमानी और उग्र प्रकृति के धारक थे। इस कारण वे अभिमान मेरु, कहलाते थे। अभिमान मेरु' अभिमान चिन्ह काव्य रत्नाकर कवि-कुल-तिलक और सरस्वती निलय तथा कबि पिशाच" आदि उनकी उपाधियां थीं। जिनका उपयोग उन्होंने अपने ग्रन्थों में स्वयं किया है। इससे उनके व्यक्तित्व और प्रतिष्ठा का सहज ही अनुमान किया जा सकता है। वे सरस्वती के विलासी और स्वाभाविक काव्य-कला के प्रेमी थे। इनको काव्य-शक्ति अपूर्व और माश्चर्यजनक थी। वे निस्संग थे, उनकी निस्संगता का परिचय महामात्य भरत के प्रति कहे गए निम्न वाक्यो से स्पष्ट हो जाता है। वे मन्त्री भरत से कहते हैं कि-...मैं धन को तिनके के समान गिनता हूं। मैं उसे नहीं लेता । मैं तो केवल अकारण प्रेम का भूखा । और इसी से तुम्हारे महल में । मेरी कविता तो जिनचरणों की भक्ति से ही स्कुरायमान होती है, जीविका निर्वाह के ख्याल से नहीं। पुष्पदन्त बड़े भारी साम्राज्य के महामात्य भरत द्वारा सम्मानित थे। भरत राष्ट्रकुट राजाओं के अन्तिम सम्राट् कृष्ण तृतीय के महामात्य थे। कवि ने उन्हें 'महयत्त वंसधय बड़ गहीरु' लिखा है। भरत मानवता के हामी, विद्वानों के प्रेमी और कवि केमाश्रय दाता थे। वे उनके पमीत व्यवहार से उनके महलों में निवास करते थे। यह सब उनकी धर्म वत्सलता का प्रभाव है जो उक्त कवि से महापराण जसा महान ग्रन्य निर्माण कराने में समर्थ हा सके। भरत मन्त्री के दिवंगत हो जाने के बाद भी कवि उनके सपत्र नन्न के महल में भी रहे और नागकुमार चरित यशोधर चरित की रचना की। उत्तर पुराण के संक्षिप्त परिचय पर से ज्ञात होता है कि वे बड़े निस्पृह और अलिप्त थे, और देह-भोगों से सदा उदासीन रहते थे । कवि के उच्चतम जीवन-कणों से उनकी निर्मल भद्र प्रकृति, निस्संगता और अलिप्तता का वह चित्रपट हृदय-पटल पर अंकित हए विना नहीं रहता। उनकी इस प्रकिचन वृत्ति का महा भात्य भरत पर भी प्रभाव पड़ा है। देहभोगों की प्रलिप्तता उनके जीवन की महत्ता का सबसे बड़ा सबूत है । यद्यपि वे साध नहीं थे, किन्तु उनकी निरीहभावना इस बातकी संद्योतक है कि उनका जीवन एक साधु से कम भी नहीं था वे स्पष्टवादी थे और अहंकार की भीषणता से सदा दूर रहते थे, परन्त स्वाभिमान का परित्याग करना उन्हें किसी तरह भी इष्ट नहीं था। इतना ही नहीं किन्तु वे अपमान से मत्यु को अधिक श्रेष्ठ समझते थे । कवि का समय १. देखो, उत्तर पुराण प्रशस्ति २. कसण सरीरे सुद्धकुरूवें मुखारवि गम्भ संभू ।' उत्तर पु० प्रशस्ति ३. (क) नं सुरसेवि भणइ अहिमायमेरु ।' महापु० सं० १-३-१२ (ख) णमाहो मंपिरि शिवसतु संतु, अमिाण मेरू गुणगण महंतु ।। -माग कु० च ० १, २, २ ४. वय संजुत्ति उत्त मसंसि वियलिव संकि अहिमाणकि जसहरच० ५-३१ ५. भो भो केसव तण्रह एवसर रुह मुह कज्न रयण रयणा यरु । ६. तं शिरणेषि भरहें व्रत ताव, मो कइकुलतिलय विमुक्कगाव । -महा पु०१.१ ७. जिरगचरण कमल भत्तिल्लएरण, ता जंपिड कम्वपिसहल एण। -महापू० १, ८, ८ ८. घणु तपसमु मण्इन, ण तं गहणु, गेह मिणकारिम इच्छमि । देवि सुभ सुदरिणहि तेण हंड, णिलए तुहार ए अच्छमि ॥२०, उत्तरपु. ६. मझ कहत्तणु जिण पय भत्तिहे, पसर गउ शिप जीविय वित्तिहे-उत्तरपु०
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy