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________________ पारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य कवि ने इस ग्रन्थ को विक्रम संवत् ११६० में ज्येष्ठ कृष्णा पंचमी मनिवार के दिन बनाकर समाप्त किया है । इस से एक वर्ष पहले सं० ११८९ में पार्श्वनाथ चरित नट्टल साहुकी प्रेरणा से बनाया । चन्द्रप्रभचरित सं० ११८९ रो पूर्व बन जुका था, संवत् ११८७ या ११५८ में बनाया हो । और संभवतः ११८६ में ही शान्तिनाथ चरित की रचना की है, इसी से उसका उल्लेख सं० ११६० के वर्धमान चरित में किया है। कवि ने अन्य किन ग्रन्थों की रचना की, यह अभी अन्वेषणीय है। ये दोनों चरित ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं। अमृतचन्द्र (द्वितीय) यह महामूनि माधवचन्द्र मलधारी के शिष्य थे, जो प्रत्यक्ष धर्म, उपशम, दम, क्षमा के धारक मोर इन्द्रिय तथा कपायों के विजेता थे, और उस समय 'मलधारि देव' के नाम से प्रसिद्ध थे। अमृत चन्द्र इन्हीं माधव चन्द्र के शिष्य थे। यह महामनि अमृत तप तेज रूपी दिवाकर, व्रत नियम तथा शील के रत्नाकर थे। तर्क रूपो लहरों से जिन्होंने परमत को झंकोलित कर दिया था डगमगा दिया था, जो उत्तम व्याकरण रूप पदों के प्रसारक थे । जिनके ब्रह्मचर्य के तेज के प्रागे कामदेव भी छिप गया था—वह उनके समीप नहीं पा सकता था। इससे उनके पूर्ण ब्रह्मचर्य निष्ठ होने का उल्लेख मिलता है। इनके शिष्य सिंह कवि ने, जब अमृत चन्द्र विहार करते हुए बह्मणवाड नगर (सिरोही) में पाये तब सिद्ध कवि के प्रपूर्ण एवं खण्डित 'प्रद्युम्न चरित' का उद्धार किया था। इनका समय विक्रम की १२वीं शताब्दी है। ता मलधारी वेज मुणि-पंगमु, गं पच्चक्ख धम्मु जवसमु दमु। माहवर प्रासि सुपसिद्धउ, जो खम-दम-जम-णियम-समिद्धउ । तासुसीसु तब-तैय-विषायक, वय-तय-णियम-सील-रयणायरु । तक्क-लहरि-झकोलिय परमज, वर-वायरण-पवर पसरिय पज । जासु भुवणदूरंतर बंकिवि, ठिउ पच्छष्णु मयणु प्रासंकि वि। प्रमियचंदु गामेण मडारउ, सोविहरंतु पत्तु बुह-सारउ । सस्सिर-गंदण-वण-संछष्णउ, मठ-विहार-जिणभवण - रवण्णउ । बम्हण वाड गामें पट्टणु । जनप्रन्थ प्र०सं० भा० २१० २१ मल्लिषेणमलधारी यह मिलसंघ नन्दिगण अरुङ्गलान्वय के वादीभसिंह अजितसेन पंडित देव और कूमारसेन के शिष्य थे। नथा श्रीपाल विद्य के गुरु थे । मल्लिषेण बड़े तपस्वी थे । उनका शरीर बारह प्रकार के प्रचण्ड तपश्चरण का धाम था। और वह धूल' धूसरित रहता था, उसका बे कभी प्रक्षालन नहीं करते थे। उन्होंने भागमोक्त रत्नत्रय का पाचरण किया था और नि:शस्य होकर अशेष प्राणियों को क्षमाकर जिनपाद मूल में देह का परित्याग किया थासन्यास विधि द्वारा शक सं० १०५० के कीलक संवत्सर में (सन् ११२८ ई.) में श्रवणबेलगोल में तीन दिन के अनशन से मध्याह्न में शरीर का परित्याग किया था। जैसा कि मल्लिषेण प्रशस्ति के अन्तिम पद्यों से स्पष्ट है - प्राराध्यरत्न-श्रयमागमोक्तं विधायनिश्शल्यमशेष जन्तोः। क्षमा कृत्वा जिनपादमले देहं परित्यज्य विवं विशामः ॥७१३ शाके शून्यशरावरावनिमिते संवत्सरेकीलके, मासे फाल्गुण के तुतीय विवसे वासं सितेभास्करे। १ णिव विक्कमाइच्च हो कालए, गिज्युच्छववर तूर खालए 1 एयारह सरहि परि विगहि, संवच्छर सय एव हि समयहि । जेट्ट पढम पक्खई पंचमिदिणे सूरुवारे गयरणं गरिण ठिइमणे।। -जैन मय प्र. सं. भा. २०१८
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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