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________________ जैन धम का प्राचीन इतिहाम भाग २ स्वतन्त्र नहीं हो सकती जैसों कठोर प्राज्ञायें प्रचलित थी। स्त्रो योर शूद्रों को बेद पढ़ने का अधिकार नहीं था।' शूद्रों से पशुओं जैसा व्यवहार किया जाता था। उन्हें धर्म-सेवन करने का कोई अधिकार प्राप्त नहीं था। वे पददलित और नीच समझे जाते थे। उनकी छाया पड़ जाने पर उन्हे दक्त किया जाता था और स्पर्श हो जाने पर सचेल स्नान किया जाता था। शिक्षा-दीक्षा प्रार देदादि शास्त्रों के सुनने का अधिकार केवल द्विजालियों को था। शुद्र को बंद की ऋचार सुनने पर काना में शीशा भरने, घोलने पर जीभ काटने और ऋचात्रों के कंठस्थ करने पर शरीर नष्ट कर देन का कठोर विधान था तथा यह प्रार्थना की जाती थी कि उन्हें बुद्धि न दे, का प्रसाद न दे और ता.द का उपदंश भी न दे । यद्यपि २३ वें तीर्थकर पार्श्वनाथ के निवाण को अभी पूरे दो सौ वर्ष भी व्यतीत नहीं हुए थे, किन्तु फिर भी उनके संघ और धर्म की स्थिति शोचनीय हो गई थी। तात्कालिक क्रियाकाण्डों के प्रभाव से जैन मंघ भी अछूता नहीं बचा था। उसमें भी वर्ण और जाति-भेद के संस्कारों का प्रभाव किसी न किसी रूप में प्रविाट हो गया था। धार्मिक संस्कारों पर भी अन्धविश्वास, हिमा और रूदियों का प्रभाव अंकित हो रहा था। पाखनाथ-पपरा के श्रमणों में भी दोथिल्य प्रदिष्ट हो गया था। वे स्वयं अराक्त हो रहे थे। ऐसी स्थिति म हिंसक क्रियाकाण्डों को मिटाना उनके लिये सम्भव नहीं था। राजनैतिक दष्टि से भी उक्त समय उथल-पुथल का था। उसमें स्थिरता नहीं थी। कई स्थानों पर प्रजातन्त्रात्मक गणराज्य थे जिनका शासन अपेक्षाकृत सुखशान्ति सम्पन्न था। पर याजिक क्रियाकाण्डों में होने वाली हिसा का तांडव दूर नहीं हुआ था और न उन राज्यों में ऐसी शक्ति ही थी, जो उन पाशिक श्ािकाण्डों से पा हिसा का निवारण कर पदानों को अभयदान दिला सके। क्योंकि अशक्त आत्मा अपना स्वयं भी उत्थान नहीं कर सकता, फिर अन्य के करने का प्रदन ही नहीं उता। उस समय देश का वातावरण विषम हो रहा था। ऐसी स्थिति में किसी ऐसे योग्य नेता की आवश्यकता थी, जो आत्मवल से क्रान्ति ला दे और यानिक भयाकागदों का विरोध कर उसमें प्रदिसा की भावना भर दे। अधर्म को धर्म समझ कर जो कार्य निष्पन्न किया जाता था, उसमें परिवर्तन ला द। धर्म को यथार्थ परिभाषा को जन-मानस में प्रतिष्ठित कर दे और जनता के कष्टों को दूर कर उसके उत्थान का मार्ग सरल एवं सुलभ बना दे। उस समय किसी ऐसे शक्तिमान नेतृत्व की प्रावश्यकता थी, जिसके व्यक्तित्व के प्रभाव से हिला का ताण्डव अहिसा में परिणत हो सके । 'जनना महो कोई अवतार नया की आवाजें उठ रही थीं। जव अन्याय अत्याचार के साथ मधर्म की मात्रा अधिक हो जाया करती है, तभी शान्तिकारी नेता का प्रादुर्भाव होता है। परिणामस्वरूप लोक में महावीर का अवतार हुआ। १. 'न -बीद्रौत्र दे मधी येताम् वशिष्ठ-स्मृति २. बंदमुपवतन्नस्य उतुभ्यां धीरः प्रतिपूरए मुच्चारण जि.वादो, दाणे शरीरभेदः । (गौतम धर्मम्बम् १९५) न शूद्राय भनि दद्यान्नोच्छिष्टं न हविकृतम् । न चास्योपदिशेद्धर्म, न चास्य इतमादिकेत् । (वशिष्ठ स्मृति १८, १२, १३)
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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