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________________ १. महावीर से पूर्व देश-काल की स्थिति आज से लगभग छब्बीस सौ वर्ष पूर्व भारत की स्थिति अत्यन्त विषम थी। चारों ओर हिंसा, असत्य, शोषण, दम्भ और अनाचार का साम्राज्य था। देश का वातावरण अत्यन्त क्षुब्ध, पीड़ित और संत्रस्त हो रहा था । धर्म की रुचि मन्द पड़ गयी थी। बाह्मण संस्कृति के बढ़ते हुए वर्चस्व में श्रमण संस्कृति दबी जा रही थी। जानि भेद की दुर्गन्ध से देश का प्राण घट रहा था। जातिभेद के अभिमान ने ब्राह्मणों को पतित बना दिया था। ई-. द्वेप, अहंकार, लोभ, अज्ञान, अकर्मण्यता, क्रूरता और धूर्ततादि दुगंणों का निवास हो गया था। बहुदेवताबाद की कल्पना साकार हो उठी थी। धर्म के नाम पर मानव अधर्म और विकृतियों का दास बन गया था। धर्म का स्थान याज्ञिक क्रियाकाण्डों ने ले लिया था। यज्ञों में धूत, मधु अदि के साथ पशु भी होमे जाते थे और डके की चोट यह घोषणा की जाती थी कि भगवान ने यज्ञ के लिए ही पशुओं की रचना की है। वेद विहित यज्ञ में की जाने वाली हिंसा, हिंसा नहीं किन्तु अहिंसा है।' शैस्त्र के द्वारा मारने पर जीव को दुःख होता है। इसी शस्त्रबध का नाम पाप है, हिंसा है, किन्तु शस्त्र के बिना वेद मन्त्रों से जो जीव मारा जाता है वह लोक-धर्म कहलाता है। मानव अधिकारों का दिन दहाड़े हनन होता था । व्यक्ति की सत्ता विनष्ट हो चुकी थी। ब्राह्मण ही धर्मानष्ठान के उच्च अधिकारी माने जाते थे। शासन विभाग में उन्हें खास रियायतें प्राप्त थीं। बड़े से बड़ा अपराध करने पर भी उन्हें प्राणदण्ड नहीं दिया जाता था, जबकि दूसरों को साधारण से साधारण अपराध होने पर मृत्युदण्ड दे दिया जाता था। धर्म का स्थान अधर्म ने ले लिया था, अराजकता का साम्राज्य बढ़ रहा था। मानवता कराह रही थी। उसकी गरिमा का पतन हो चुका था। धर्म राजनीति का एक कुण्ठित हथियार मात्र रह गया था। जनता की प्रास्था धर्म से उठ चुकी थी। स्वार्यलोलुप धर्मगुरु उसके ठेकेदार समझे जाते थे। स्थिति अत्यन्त दयनीय हो रही थी। मूक पशुओं की हत्या और उनके प्राक्रन्दन प्रादि से पृथ्वी तिलमला उठी थी। मानव का कोई मूल्य नहीं रह गया था। उसकी चेतना को लकवा मार गया था। नारी की सामाजिक स्थिति भयावह थी, उसका अपहरण हो चुका था। उसे धर्म-साधन करने का कोई अधिकार प्राप्त नहीं था । वे बंद प्रादि की उच्च शिक्षा से भी वंचित थी। 'न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति' 'स्त्री १. यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा । यज्ञस्य भुत्य सर्वस्व तस्माद् यज्ञे वयोऽवमः ।। या वेदविहिता हिंसा नियताम्मिश्चराचरे । महिंसामेव तां विद्याद वेवादु धर्मो हि निर्बभौ ॥ -भनुम्गनि ५-२२, २६.४ २. या वेदविहिता हिंसा स न हियति निर्णयः । शस्त्रेण हन्यते यच्च पीडा जन्नु जापटे ५० स एव धर्मएवास्नि लोके धर्मविशवाः । वेदमंत्रविहन्येत विना परत्रेण जन्तवः ।। - स्कन्ध पुराण
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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