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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ डा० महेन्द्र कुमार जी ने अकलंक का समय ईसाकी देवीं शताब्दी का उत्तरार्ध सिद्ध करते हुए जो साधक प्रमाण दिये हैं। उन्हें यहां दिया जाता है: १- दन्तिदुर्ग द्वितीय उपनाम साहस तुरंगकी सभा में अकलंक का अपने मुख से हिमशीतल की सभा में हुए शास्त्रार्थ की बात कहना । दन्तिदुर्गका राज्य काल ई० ७४५ से ७५५ है, और उसी का नाम साहस तुंग था । यह रामेश्वर मन्दिर के स्तम्भलेख से सिद्ध हो गया है। १४८ २- प्रभाचन्द के कथाकोश में अकलंक को कृष्णज के मंत्री पुरुषोत्तम का पुत्र बताना । कृष्ण का राज्य काल ई० ७५६ से ७७५ तक है । ३ - प्रकलंक चरित में प्रकलंक के शक सं० ७०० ( ई० ७७८) में बौद्धों के साथ हुए महान वाद का उल्लेख होना । 1 ४ – प्रकलंक के प्रत्थों में निम्नलिखित आचार्यों के ग्रन्थों का उल्लेख या प्रभाव होना । भर्तृहरि (ई०४ श्री ५वीं सदी) कुमारिल ( ई० ७वों का पूर्वार्ध), धर्मकीति ( ई० ६२० से ६९०), जयराशि भट्ट ( ई०७वीं सदी), ), प्रज्ञाकर गुप्त ( ई० ६६० से ७२० ), धर्माकरदत्त (अचंट ) ( ई० ६८० से ७२०), शान्तभद्र ( ई० ७०० ) धर्मोत्तर ( ई० ७०० )' कर्णगोमि ( ई० ८वीं सदी), शांत रक्षित ( ई० ७०५ से ७६२ ) । ५- कविवर धनंजय के द्वारा नाममाला में 'प्रमाणमकलंकस्य' लिखकर कलंक का स्मरण किया जाना । धनंजय की नाम माला का अवतरण धवला टीका में है। अतः धनंजय का समय ई० ८१० है । ६ - जिनसेन के गुरु वीरसेन की धवलाटीका ( ई० ८१६) में तस्वार्थ वोतिक के उद्धारण होना । ७ - प्रादि पुराण में जिनसेन द्वारा उनका स्मरण किया जाना । जिनसेन का समय ई० ७६० से ८१३ है । - हरिवंश पुराण के कर्ता पुन्नाट संघीय जिनसेन के द्वारा वीरसेन की कीर्ति को 'अकलंक' कहा जाना । ६ - विद्यानन्द आचार्य द्वारा प्रकलंक की अष्टशती पर भ्रष्ट सहस्री टीका का लिखा जाना। विद्यानन्द का समय ई० ७७५–८४० है । १०–शिलालेखों में अकलंक का स्मरण सुमति के बाद थाना" गुजरात के कर्क सुवर्णका मल्लवादि के प्रशिष्य और सुमति के शिष्य अपराजित को दिये गए दान का एक ताम्रपत्र शक, सं० ७४३ ई० ८२१ का मिला २ | 3 तस्त्वसंग्रह' में सुमतिदेव दिगम्बर के मत का उल्लेख श्राता है । तत्त्वसंग्रह पंजिका में बताया है कि सुमति कुमारिल के प्रालोचना मात्र प्रत्यक्ष का निराकरण करते हैं । श्रतः सुमति का समय कुमारिल के बाद होना चाहिये। डा० भट्टाचार्य ने सुमति का समय ई० ७२० के पास पास निर्धारित किया है १४ । यदि ताम्रपत्र में उल्लिखित सुमति ही तत्त्वसंग्रहकार द्वारा उल्लिखित सुमति है तो इनके समय की संगति बैठानी होगी; क्योंकि ताम्रपत्र के अनुसार सुमति के शिष्य अपराजित ई० ८२१ में हुए हैं और इस तरह गुरु शिष्य के समय में १०० वर्ष का अन्तर होता है । प्रो० दलसुख मालवणिया ने इसका समाधान इस प्रकार किया है कि सुमति की ग्रन्थ रचना का समय ई० १. सिद्धि विनश्चय प्र० पृष्ठ ४६ । ४. वही पृष्ठ ४१ – ३६ । ७. वही पृ० ३७ । १०. वही पु. ३६ । २. वही पृ. ४९ ॥ ५. वही पृ० ४९ ॥ ८. प्रस्तावना पृ० ३८१ ११. वही प्र० पृ० ३८ ॥ १५. तस्व [सं० प्रस्ता पृ० १२। १६. धर्मोत्तर प्रस्ताव पृ० ५५ । ३. वही पृ. ११ । ६. जैन सा. इ० पृष्ठ १११ १ ९. हरिवंश पुराण १-३६ १२. धर्मोत्तर प्रस्तावना पृ० ५५ । १३. तत्व सं० पृ० ३७९, ३०२, ३०३ ३८१, ४६६ । १४. " तत्र सुमतिः कुमारिला द्याभिमता लोचनामा प्रत्यक्ष विचारणार्थमाह" तत्त्व सं० पं० पृष्ठ २७९ ।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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