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________________ केवलज्ञान १३ वे खोने हुए मुखों से अत्यन्त भयंकर दोखते थे । इनके अतिरिक्त सर्प, हाथी, सिंह, अग्नि और वायु के साथ भीलों की सेना बनाकर उपसर्ग किया। इस तरह पाप का अर्जन करने में निपुण उस रुद्र ने अपनी विद्या के प्रभाव से भीषण उपसर्ग किये किन्तु वह उन्हें ध्यान से विचलित करने में समर्थ न हो सका। अन्त में उसने उनके महति और महावीर नाम रखकर स्तुति की ओर अपने स्थान को चला गया। श्वेताम्बर सम्प्रदाय की आचाराङ्ग निर्मुक्ति में वर्द्धमान को छोड़कर शेष २३ नोर्थङ्करों के तप कर्म को पिस बतलाया है। अन्य श्वेताम्वरीय प्रत्था में भी महावीर के उपसर्ग की अनेक घटनाएं उल्लिखित मिलती हैं, जिनसे स्पष्ट है कि महावीर को अपने साधु-जीवन में अनेक अतर्ग और परीषही का सामना करना पड़ा, रन्तु वे उनसे रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए, प्रत्युत ग्रात्मसहिष्णुता से उनके ग्रात्मप्रभाव में हो अभिवृद्धि हुई और लोगों ने उनके अमित साहस और धैर्य की सराहना की। महावीर अपने साधु-जीवन में पंच समितियों के साथ मन-वचन-कायरूप तीन गुप्नियों को जीतनेउन्हें वश में करने और पचेन्द्रियों को उनके विषयों से निरोध करने तथा कपाय चक्र को कुशल मन के समान मल-मल कर निष्प्राण एवं रस रहित बनाने अथवा कषायों के रस को सुखाने, उनकी शक्ति को निर्वल करते हुए क्षीण करने का उपक्रम करने हेतु, दर्शन ज्ञान चारित्र को स्थिरता से समता एवं संयत जीवन व्यतोन करते हुए समस्त परद्रव्यों के विकल्पों से शून्य विशुद्ध आत्म स्वरूप में निश्चल वृत्ति से अवगाहन करते थे । श्रमण महावीर को इस तरह ग्राम, खेट, कवंट, और वन मटम्बादि अनेक स्थानों में मीनपूर्वक उग्र तपदचरणों का अनुष्ठान एवं आचरण करते हुए बारह वर्ष पांच महोने और पन्द्रह दिन का समय व्यतीत हो गया। उन्हें इन बारह वर्षों के समय में बारह चातुर्मासों में चार चार महीने एक एक स्थान पर रहना पड़ा, परन्तु अपनी मौन वृत्ति के कारण उन्होंने कभी किसी से संभाषण तक नहीं किया और न किसी को उपदेशादि द्वारा हो तुष्ट किया । उपसर्ग और परीषों के कठिन अवसरों पर भी समभाव का प्राश्रय लिया । महावीर का साधु जीवन कष्टसहिष्णु और १. देखो, उत्तर पर्व ७४ ३३१ से ३३६ २. सम्बेसि तो कम्मं निश्वसमां तु वणियं जिणा । नवरं तु बदमास सोचमग्मं मुणेयस्वं ॥ २७६ ।। आचारांग नियुक्ति ग्रामपुर टकट बंधारा विजहार । उस्तपोविद्विदिवम पूज्यः ॥ १०॥ निर्वारणभक्ति (क) श्वेताम्बर सम्प्रदाय में श्रामतौर पर तीर्थंकरों के रस का दिवान नहीं है किन्तु उनके यहाँ जहां तहाँ वर्षावास में चौमासा बिताने और वयस्य अवस्था में उपदेशादि स्वयं देने अथवा यजादि के द्वारा दिलाने का उल्लेख पाया जाता है । परन्तु प्राचाराङ्ग सूत्र के टीकाकार शीला ने साधक are strपूर्वक ताश्चरण करने का दिगम्बर परम्परा के समान ही विधान किया है। वे बाक्य इस प्रकार हैं : "नानाविधाभितपतो घोरान् परीषहोपसर्गानपि सहनानो महासत्वतया म्लेच्छानप्युपशमनं नयन् द्वादशवर्षाणि साधिकानि वमस्थ मोती तपश्चचार ।" सूत्रवृत्ति पृ० २७३ ) - ( आवारा भाषा लांक के इस उल्लेख पर से श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी तीर्थंकर महावोर के मौनपूर्वक तपदचरण का विधान होने से छद्मस्थ अवस्था में उपदेशादि की कल्पना निरर्थक जान पड़ती है । लाठीका में महावीर के तपश्चरण का काल बारह वर्ष साढ़े पांच महीना बतलाया है गमय मस्त वारसवासारिण पंच मासेय । पारस दिशायि तिरयण सुद्धो महावीरो ॥ —घवला में उद्धृत प्राचीन गाथा
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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