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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास संयम मनिष चर्या से देदीप्यमारदाता है। इस तरह महावीर अन्तर्बाह्य तपों के अनुष्ठान द्वारा आत्म-शुद्धि करते हए जम्भिक ग्राम के समीप आये, और ऋजुकला नदी के किनारे शाल वृक्ष के नीचे बैठ गये। वैशाख शुक्ला दशमी को तीसरे पहर के समय जब वे एक शिला पर षष्ठोपवास से युक्त होकर क्षपक श्रेणी पर आरूढ थे, उस समय चन्द्रमा हस्तोत्तर नक्षत्र के मध्य में स्थित था। भगवान महावीर ने ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा ज्ञानावरणादि घाति-कर्म-मल को दग्ध किया और स्वाभाविक पात्म-गुणों का विकास किया और केवलज्ञान या पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया। जिस समय भगवान महावीर ने मोह कर्म का विनाश किया, उसके अनन्तर वे केवलज्ञान, केवल दर्शन और अनन्तवार्य युक्त होकर सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो गए तथा वे सयोगी जिन कहलाये। ऐसा नियम है कि सयोगी जिन प्रति समय असंख्यात गणित श्रेणी से कर्म प्रदेशाग्र की निर्जरा करते हुए । धर्म रूप तीर्थ-प्रवर्तन के लिये यथोचित धर्म-क्षेत्र में महाविभूति के साथ) विहार करते है। केवलज्ञान होने पर उन्हें संसार के सभी पदार्थ युगपत् (एक साथ) प्रतिभासित होने लगे और इस तरह भगवान महावीर सर्वज्ञ और सर्वदशी होकर अहिंसा की पूर्ण प्रतिष्ठा को प्राप्त हुए। उनके समीप जाति विरोधी जीव भी अपना वर-विरोध छोड़कर शान्त हो जाते थे। उनकी अहिंसा विश्वशान्ति और वास्तविक १. जमुई या जभक ग्राम वञभूमि में है । जो राजगिर से लगभग ३० मील और झरिया से सवासौ मील के लगभम दूरी पर स्थित है । ऋजुकूला नदी का संस्कृत नाम 'ऋष्यकूला' है। इसी जम्भक ग्राम के दक्षिण में लगभग चार-पाच मील की दूरी पर केवली' नाम का एक गांव है। इस ग्राम के पास बहने वाली नदी का नाम अंजन है। संभव है, उक्त केवली ग्राम भगवान महाबीर के केवलज्ञान का स्थान हो । वैशाख शुक्ला दशमी के दिन वहाँ मेला भरता है, जो भगवान महावीर के केवलज्ञान की तिथि है । जयधवसा में जुम्भक ग्राम के बाहर का निकटवर्ती प्रदेश महावीर के केवलज्ञान का स्थान बतलाया है । जैसा किवसाह जोहपरव-दसमीए उजुकूलएदी तीरे भियगामिस्स बाहि छट्टोववासेा सिलाव प्रादाबतेए अवर हे पाद बायाए केवसणाणमुप्पाइदं ।' (जयप पु०१ १०७९) २. (अ) वसाह सुखदसमी माषा विखम्मि बीरणाहस । ऋजुकूलणदीतीरे प्रवराहे केवलं गाणं । तिलो १० (आ) ऋजुलायाम्तीरे शाल मसथिते शिलापट्ट।। अपराण्हे षष्ठेनारियतस्य खलु ज भिका मामे ।। वैशाख सितदशम्या हस्तोत्तरमध्यमाश्रिते पन्द्र ॥ नि० भ० (इ) उजुकूलरणदीतीरे अभिपगामे वहि सिलावटै । छणादावते प्रवरण्हे पाद बायाए ।। वसाह जोण्डपक्से दसमीए सवगसे ढिमारूढो । हंतूण घाईकम्म केबलणाणं समावण्णो।। (जय ध० पु. १०६०) (६) हरिवंशपुराण २।५७-५६ । (उ) उत्तर पुराण पर्व ७४ श्लोक ३४८ से ३५२ ३. तदो प्रणतर केबसपारण-दसण-बोरियजुत्तो जियो केवली सव्वण्र सम्वदरिसी भवदि सजोगिजियो ति भाइ । भसज्ज गुणाए सेहीए पदेसग्ग गिजरे मारणो विहरदिसि । कसाय पा०णि सुत्त १५७१, १५७२ पृ० ८६६ भगवान महावीर की सर्वशता और सर्वदर्शित्व की चर्चा उस समय लोक में विश्व त थी। यह बात बौद्ध त्रिपिटकों से प्रकट है: देखो, मज्झिमनिकाय के चूल-दुक्ख क्खन्घ मुत्तन्त पृ० ५६ तथा म०नि० के चूस सकुलु दायी मुत्तन्त पृ० ३१८ ४. महिला प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वरत्यागः । --पातंजलि योगसूत्रम् ३५
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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