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जैन धर्म का प्राचीन इतिहाग-भाग २
न्वेषण के उपाय स्वरूप प्रापकी गुण कथा के साथ कहा गया है जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है :
न रागान्नः स्तोत्र भवति भव-पासच्छिदिमुनी, न चान्येषु द्वेषादपगुणकथाऽभ्यास-खलता। किमु न्यायाऽन्याय-प्रकृत-गुणदोषज-मनसां,
हितान्वेषोपायस्तवगण-कथा-संग-गवितः ।।६३ इस तरह इस ग्रन्थ की महत्ता और गंभीरता का कुछ प्राभास मिल जाता है। किन्तु ग्रन्थ का पूर्ण अध्यपन किये बिना उसका मर्म समझ में नहीं पा सकता।
रस्नकरण्ड श्रावकाचार-इस ग्रन्थ में श्रावकों को लक्ष्य करने समीचीन धर्म का उपदेश दिया गया है। जो कर्मों का विनाशक और संसारी जीवों को संसार के दुःखों से निकाल कर उत्तम सुख में स्थापित करने वाला है, वह धर्म रत्नत्रय स्वरूप है-सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र रूप है। और दर्शनादिक को जो प्रतिकाल या विपरीत स्थिति है वह सम्यक् न होकर मिथ्या है अतएव वह अधर्म है, और संसार परिभ्रमण का कारण है।
आचार्य समन्तभद्र ने इस उपासकाध्ययन ग्रंथ में श्रावकों के द्वारा अनुष्ठान करने योग्य धर्म का व्यवस्थित एवं हृदयग्राही वर्णन किया है । जो प्रात्मा को समुन्नत तथा स्वाधीन बनाने में समर्थ है । ग्रन्थ की भाषा प्राञ्जल मधुर प्रौढ़ और पर्थ गौरव को लिये गए है। यह ग्रन्य धर्मगन ना होगा सा पिटारा हो है। इस कारण इसका रत्नकरण्ड नाम सार्थक है और समीचीन धर्म को देशना को लिये हुए होने के कारण समोचीन धमशास्त्र है। उसका प्रत्येक स्त्री पुरुष को मध्ययन या मनन करना आवश्यक है और तदनुकूल आचरण तो कल्याण का कर्ता है हो । समन्तभद्र से पहले धावक धर्म का इतना सुन्दर और व्यवस्थित वर्णन करने वाला दूसरा कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। और पश्चातवर्ती ग्रत्यकारों में भी इस तरह का श्रावकाचार दृष्टि गोचर नहीं होता। वे प्राय: उनके अनुकरण रूप है । यद्यपि परवर्ती विद्वानों के द्वारा रचे हुए श्रावकाचार-विषयक ग्रन्थ अवश्य हैं, पर इसके समकक्ष का अन्य कोई ग्रन्थ देखने में नहीं पाया । प्रस्तुत ग्रन्थ सात अध्यायों में विभक्त है, जिसकी श्लोक संख्या १५० डेढ़सी है। प्रत्येक अध्याय में दिये हुए वर्णन का संक्षिप्तसार इस प्रकार है:
प्रथम अध्याय में सच्चे प्राप्त प्रागम और तपोभृत का त्रिमूढता रहित, अष्ट मदहीन और आठ अंग सहित श्रद्धान को सम्यग्दर्शन बतलाया है। इन सबके स्वरूप का कथन करने हुए बतलाया है कि अंगहीन सम्यग्दर्शन जन्म सन्तति का विनाश करने में समर्थ नहीं होता । शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव भय, प्राशा और लोभ से कुलिगियों को प्रणाम और विनय भी नहीं करता । शान और चारित्र की अपेक्षा सम्यग्दर्शन मुख्यतया उपासनीय है । सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग में खेवटिया के समान है उसके, बिना ज्ञान और चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फलोदय उसो तरह नहीं हो पाते, जिस तरह बीज के अभाव में वृक्ष की उत्पत्ति आदि नहीं होती। समन्तभद्राचार्य ने सम्यग्दर्शन की महत्ता का जो उल्लेख किया है, वह उसके गौरव का द्योतक है।
दुसरे अधिकार में सम्यग्ज्ञान का स्वरूप निर्दिष्ट करते हुए उसके विषयभूत चारों अनुयोगों का सामान्य कथन दिया है।
तीसरे अधिकार में सम्यक चारित्र धारण करने की पात्रता का वर्णन करते हुए हिसादि पाप प्रणालिकाप्रों से विरति को चारित्र बतलाया है। और वह चारित्र सकल और विकल के भेद से दो प्रकार का है, सकल चारित्र मुनियों के और विकल चारित्र गृहस्थों के होता है, जो अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत रूप है।
चतुर्थ अधिकार में दिक्त, अनर्थदण्डव्रत और भोमोपभोग परिमाण व्रत इन तीन गुण व्रतों का, अनर्थदण्ड व्रत के पांच भेदों का और उनके पांच-पांच प्रतिचारों का वर्णन किया है।
पांचवें अधिकार में ४ शिक्षावतों का और उनके अतिचारों का वर्णन किया गया है। सामायिक के समय गृहस्थ को चलोपसृष्ट मुनि की उपमा दी है।
छठे अधिकार में सल्लेखना का स्वरूप निर्दिष्ट करते हुए उसके पांच प्रतिचारों का वर्णन दिया है।
व का घोतक माद नहीं होतात, वृद्धि और