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________________ } आचार्य समन्तभद्र - शुद्धि और शक्ति की पराकाष्ठा को — चरमसीमा को प्राप्त हुए हैं। और शान्ति सुखस्वरूप हैं - आप में ज्ञानावरण दर्शनावरण रूप कर्ममल के क्षय से अनुपम ज्ञान दर्शन का तथा अन्तराय कर्म के प्रभाव से अनन्त वीर्य का ग्राविभवि 'हुआ है। और मोहनीय कर्म के विनाश से अनुपम सुख को प्राप्त हैं। आप ब्रह्म पथ के मोक्षमार्ग के नेता हैं । और महान् हैं । श्राप का मत अनेकात्मक शासन- दमादम त्याग और समाधि की निष्ठा को लिये हुए है ओत-प्रोत है। नयों और प्रमाणों द्वारा सम्यक वस्तु तत्व को सुनिश्चत करने वाला है, और सभी एकान्त वादियों द्वारा अबाध्य है । इस कारण वह अद्वितीय हैं। इतना ही नहीं किन्तु वीर के इस शासन को 'सर्वोदय तीर्थ' बतलाया है - जो सबके उदय उत्कर्ष एवं आत्मा के पूर्ण विकास में सहायक है, जिसे पाकर जीव संसार समुद्र से पार हो जाते हैं । वही सर्वोदय तीर्थ है, जो सामान्य- विशेष, द्रव्य पर्याय विधि-निषेध और एकत्व अनेकत्वादि सम्पूर्ण धर्मों को अपनाए हुए है, मुख्य गौड़ की व्यवस्था से सुव्यवस्थित है, सब दुखों का अन्त करने वाला है, और अविनाशी है, वही सर्वोदय तीर्थ कहे जाने के योग्य है; क्योंकि उससे समस्त जीवों को भवसागर से तरने का समोचीन मार्ग मिलता है । वीर के इस शासन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस शासन से यथेष्ट द्वेष रखने वाला मानव भो यदि समदृष्टि हुआ उपपत्ति चक्षु से - मात्सर्य के त्याग पूर्वक समाधान की दृष्टि से - वीरशासन का अवलोकन और परीक्षण करता है तो अवश्य ही कामान हो जाता है- सर्व एकान्त रूप मिथ्या प्राग्रह छूट जाता है, वह अभद्र ( मिथ्यादृष्टि) होता हुआ भी सब मोर से भद्ररूप एवं सम्यग्दृष्टि बन जाता है । जैसा कि ग्रन्थ के निम्न पद्य से प्रकट है: hi मयुपपचक्षुः समीक्ष्यतां ते समदृष्टि रिष्टम् । स्वयि ध्रुवं पण्डित-मान शृङ्गो भवत्यभवोऽपि समन्तभद्रः ।। ६२ ग्रन्थ सभी एकान्त वादियों के मत की युक्ति पूर्ण समीक्षा की गई है, किन्तु समीक्षा करते हुए भी उनके प्रति विद्वेष को रंचमात्र भी भावना नहीं रही है । और न वीर भगवान के प्रति उनको रागात्मिका प्रवृत्ति ही रही है। ग्रन्थ में संवेदनाद्वैत, अद्वैतवाद, शून्यबाद श्रादि वादों और चार्वाक के एकान्त सिद्धान्त का खंडन करते हुए fafe, free or वक्तव्यता रूप सप्तभंगों का विवेचन किया है, तथा मानस प्रहिसा की परिपूर्णता के लिये farari का वस्तुस्थिति के आधार से यथार्थं सामंजस्य करने वाले अनेकान्तदर्शन का मौलिक विचार किया गया है। साथ ही वीर शासन की महत्ता पर प्रकाश डाला है । ग्रन्थ निर्माण के उद्देश्य को अभिव्यक्त करते हुए ग्राचार्य कहते हैं कि हे भगवान् ! यह स्तोत्र आपके प्रति रागभाव से नहीं रचा गया है। क्योंकि ग्राप ने भव-पाश का छेदन कर दिया है। और दूसरों के प्रति द्वेष भाव से भी नहीं रखा गया है; क्योंकि हम तो दुर्गणों की कथा के अभ्यास को खलता समझते हैं । उसप्रकार का अभ्यास न होने से वह खलता भी हम में नहीं है। तब फिर इस रचना का उद्देश्य क्या है ? उद्देश्य यही है कि लोग न्यायअन्याय को पहचानना चाहते हैं और प्रवृत पदार्थ के गुण दोषों के जानने की इच्छा है उनके लिये यह स्तोत्र हिता ७. "त्वं शुद्धिशक्त्यो रुदयस्काष्ठां तुला पतीतां जिनः शान्तिरूपाम् । अवापि ह्यपथस्य नेता, महानितीयत्प्रतिवक्तुमीशाः ॥ ४ ८. दम-याग समाधि-निष्ठ नय-प्रमाण प्रकृताऽऽञ्ज सार्थम् । अधुष्प मन्येरखिलं प्रवाद जिन ! त्वदीयं मत मद्वितीयम् । ६ १०१ ६. सर्वोवतद्गमुख्यकल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोन पेक्षम् । सर्वापदाम तक निरन्त सर्वोदय तीर्थमिदं तव ।। ६२ युवश्यनुशासन — युवत्यनुशः सन
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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