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________________ आचार्य समन्तभद्र सातवें अधिकार में श्रावक के उन ग्यारह पदों का प्रतिमानों का स्वरूप दिया है और बतलाया है कि उत्तरोत्तर प्रतिमाओं के गुणपूर्वकपर्व की प्रतिमाओं के सम्पूर्ण गुणों लिये हुए हैं। इस तरह इस ग्रन्य में श्रावक के अनुष्ठान करने योग्य समीचीन धर्म का विधिवत कथन दिया हआ है। यह ग्रन्थ भी समन्तभद्र भारती के अन्य ग्रन्थों के समान ही प्रामाणिक है और मनन करने के योग्य है। प्राचार्य समन्तभद्र की उपलब्ध सभी कृतियां महत्वपूर्ण और अपने अपने वैशिष्टय को लिये हुए हैं। समय प्राचार्य समन्तभद्र के समय के सम्बन्ध में स्व०५० जुगलकिशोर मुख्तार ने अनेक प्रमाणों के साथ विचार किया है और उनका समय वित्रम की दूसरी शताब्दी का पूर्वार्ध बतलाया है। बे तत्वार्थसूत्र के कर्ता उमास्वाति (गद्धपिच्छाचार्य) के बाद किसी समय हुए हैं। गृद्धपिच्छाचार्य विश्राम की दूसरी शताब्दी के आचार्य माने जाते हैं। समन्तभद्र उन्हीं के बाद और देवनन्दी ( पूज्यवाद )से बहुत पूर्ववर्ती हैं। वे सम्भवतः विक्रम को दूसरी शताब्दी के विद्वान होने चाहिये । कोंगणि वंग के प्रथम राजा, जो गंग वश के संस्थापक सिंहनन्याचार्य से भी पूर्ववर्ती हैं। कोंगणिवर्मा का एक प्राचीन शिलालेख शक सं० २१ का उपलब्ध है। उससे ज्ञात होता है कि कोंगणि बर्मा वि० सं० १६० (ई. सन् १०३) में राज्याशासन पर प्रारूद हुए थे। अतः प्रायः वही समय प्राचार्य सिंहनन्दी का है। समन्तभद्र उससे पहले हए है। क्योंकि मल्लियेण प्रशस्ति में सिंहनन्दि में पूर्व समन्तभद्र का स्मरण किया गया है। अतः उनका समय दिन की सीमान्ती कर रही है जो मुख्तार साहब ने निश्चित किया है। वह प्रायः ठीक है। सिंहनन्दि मलसंघ कुन्दकुन्दाचार्य काणरगण श्रीर मेप पाषाण गच्छ के विद्वान थे। वे दक्षिण देश के निवासी थे। सिद्धेश्वर मन्दिर के शिलालेख में उन्हें दक्षिण देशवाशी और गंगमही मण्डल का समुद्धारक बतलाया है। जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट हैं दक्षिण-घेश-निवासी गंगमही-मण्डलिक-कुल-समुखरणः । श्रीमलसंघनाथो नाम्नः श्रीसिहनन्विमुनिः ।। मुनि सिंहनन्दि गंगवंश के संस्थापक के रूप में स्मुत किये जाते हैं। सिंहनन्दि ने गंगराजा को जो सहायता दी उसके परिणामस्वरूप गंगराजाओं ने जैनधर्म को बराबर संरक्षण दिया । गंग राजवंश दक्षिण भारत का प्रमुख राज्य रहा है। चौथी शताब्दी से १२वीं शताब्दी तक के शिलालेखों से प्रमाणित है कि गंगवंश के शासकों ने जैन मन्दिरों का निर्माण कराया, जैन मूर्तियां प्रतिष्ठित कराई । जैन साधुओं के निवास के लिए गुफाएं निर्माण करायों और जैनाचार्यों को दान दिया। कल्लरगुड के शिलालेख में बतलाया हैं कि पद्मनाभ राजा के ऊपर उज्जैन के राजा महीपाल ने माक्रमण किया। तब उसने दडिग और माधव नाम के दो पुत्रों को दक्षिण की ओर भेज दिया। वे यात्रा करते हुए 'पेरूर' नाम के सुन्दर स्थान में पहुँचे। उन्होंने वहीं अपना पड़ाव डाल दिया और तालाब के निकट चैत्यालय को देखकर उसकी तीन प्रदक्षिणा दी। वहीं उन्होंने आचार्य सिंहनन्दि को देखा, और उनकी वन्दना कर अपने पाने का कारण बतलाया। उसे सुनकर सिहन्दि ने उन्हें हस्तावलम्ब दिया। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर देवी पावती प्रकट हुई और उसने उन्हें तलवार और राज्य प्रदान किया। जब उन्होंने सम्पूर्ण राज्य पर प्रभुत्व स्थापित कर लिया तब प्राचार्य सिंहनन्दि ने उन्हें इस प्रकार शिक्षा दी-'यदि तुम अपने बचन को पूरा न करोगे, या जिन शासन को सहाय्य न दोगे, दूसरों की स्त्रियों का यदि अप १. देखो, जनासाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश पृ०६६५ २. शिलालेख का आद्य अश इस प्रकार है : ___ "स्वस्ति श्रीमत्कोंगरिंणवर्म धर्भ महाधिराज प्रयम गंगस्य दत्तं शक वर्ष गतेषु पंचविशति २५नेय शुभ किंतुसंवत्सरमु फाल्गुग शुद्ध पंचमी शनि रोहिरिण...'' -देखो, मजन गूह ताल्लुके (मैसूर) के शिलालेख नं ११०, सन् १८६४ (E. C. Im)
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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