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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ हरण करोगे, मद्य-मांस मधु का सेवन करोगे या नीचों को संगति में रहोगे, आवश्यकता होने पर भी दूसरों को अपना धन नहीं दोगे, और यदि युद्ध के मैदान में पीठ दिखाओगे तो तुम्हारा वंश नष्ट हो जायगा।' उक्त शिलालेख में सिहनन्दि के द्वारा दिये गए राज्य का विस्तार भी लिखा है। उच्च नन्दिगिरि उनका किला था, कुवलाल राजधानी थी, ६६ हजार देशों पर प्राधिपत्य था। निर्दोष जिनदेव उनके देवता थे। युद्ध में विजय ही उनका साथी था। जैन मत उनका धर्म था । और दडिग तथा माधव बड़ी शान के साथ पृथ्वी का गासन करते थे। ईस्वी सन १९२६ के शिलालेख में लिखा है कि सिंहनन्दि मुनि ने अपने शिष्यों को प्रहन्त भगवान की ध्यानरूपी वह तीक्ष्ण तलवार भी कृपा करके प्रदान की थी, जो घाति कर्मरूपी शत्रुसैन्य की पर्वतमाला को काट डालती है। यदि ऐसा न होता तो देवी के प्रवेश मार्ग को रोकने वाले पत्थर के स्तम्भ को माधव अपनी तलवार के एक ही बार से कैसे काट डालता ११७६ ई० के एक शिलालेख में भी सिंहनन्दि के द्वारा गणराज्य की स्थापना का निर्देश है । सिंहनन्दि का समय ईसा को द्वितीय शताब्दी है। आचार्य शिवकोटि (शिवार्य) प्राचार्य शिवकोटि या शिवार्य अपने समय के विशिष्ट विद्वान थे। इन्होंने अपनी कृति प्राराधना की अन्तिम प्रशस्ति में अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख किया है। वे दोनों गाथाएँ इस प्रकार हैं प्रजजिणणंवि गणि सव्वगुत्तगणि प्रपमित्तबीणं । । पापियवसले सम्म सुतं मत्थं ॥२१६५|| पुण्यायरियणिबना उबजीरित्ता इमास सत्तीए । मारामचा सिजेग पाणिवलभोरणा सदा ॥२१६६|| इन दोनों गापामों में बतलाया है कि-'मार्य जिननन्दिगणी, मार्य मित्रन दिगणी के चरणों के निकट भले प्रकार सूत्र और पर्व को समझ करके तथा पूर्वाचार्यों द्वारा निबंड हुई पाराषनामों के कपन का उपयोग करके पाणितल भोजी-करतल पर लेकर भोजन करने वाले-शिवार्य ने यह माराधना अन्य अपनी शक्ति के अनुसार इस प्रशस्ति में मार्य जिनमन्दिगणी आदि जिन तीन गुरुमों का नामोल्लेख किया है वे कौन हैं और कब हुए हैं। उनकी गुरुपरम्परा मोर गण-गच्छादि क्या है? इत्यादि बातों के जानने का कोई साधन उपलब्ध नहीं है। हो, द्वितीय गाथा में प्रयुक्त हुए प्रत्यकार के पाणिदलभोइणा' इस विशेषण पद से इतनी बात स्पष्ट हो जाती है कि प्राचार्य शिवकोटि ने इस अन्य की रचना उस समय की जब जैनसंध दिगम्बर श्वेताम्बर दो विभागों में विभक्त हो घका था। उसी भेद को प्रदर्शित करने के लिए अन्यकत्ता ने उक्त विशेषण पद का लगाना उचित समझा है। फलतः वे उक्त भेद से सम्भवतः सौदसौ वर्ष बाद हुए हों। क्योंकि पाराधना अन्य में प्राचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की कुछ गाथाएं ज्यों के स्यों रूप में पाई जाती है उसके एक दो उदाहरण नीचे दिये जाते हैं समभट्टाभट्टा सणभहस्स गरिय मिष्या। सिम्झंतिपरियभट्टा सणभट्ठा व सिझति ॥ माराधना की नं०७३८ पर पाई जानेशली यह गाथा कुन्दकुम्व के दर्वानप्राभूत की तीसरी गाया है। इसी तरह कुन्दकुन्ध केमियमसार की दो पाषाएँ ६१,७०माराधना में ११७, ११मसम्बरो परसपा परित्र पाहरकीबी गाथा आराधना में १२११पर पाईजातीहै। पौरपारस प्रवक्ता की दूसरी गापा मारापना १५पर ज्यों के त्यों रूप में उपलब्ध होती है। इनके अतिरिक्त कुछ पापाएँ ऐसी भी है जो पोडेसे पाठभेडया परिणतनापि के साथ एपलब्ध होती है। ऐसी गापामों का एक नमूना इस प्रकार है
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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