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________________ आचार्य शिवकोदि (गिनाय) जं अण्णाणी कम्म खवेदि भवसयसहस्स कोडोहिं । तं जाणी तिहिगतो खवेवि उस्सासमेतण ।। --प्रवचनसार ३१३८ जं अण्णाणी कम्म खबेदि भवसथसहस्सको डिहि । तं णाणी तिहिगत्तो खवेथि अन्तो मुहत्तेण ॥ -पारा० १०८ इसी तरह चारित्र प्राभूत की गाथा नं० ३५, ३२, ३३, ३५, पाराधना में कुछ परिवर्तन तथा पाठ भेद के साथ गाधा नं० ११८४, १२०६, १२०७, १२१०, १८२४ उक्त स्थिति में उपलब्ध होती है। इससे स्पष्ट है कि पाराधना के कर्ता शिवार्य कन्दकन्दाचार्य के बहत बाद हुए हैं। इनाही नहीं किन्तु शिवकोटि के सामने समन्तभद्र के ग्रन्थ भी रहे है। क्योंकि इस ग्रन्थ में बहत स्वयंभ स्तोत्र के कुछ पद्यों के भाव को अनुवादित किया गया है। संस्कृत टीकाकार ने भी उसके समर्थन में स्वयंभू स्तोत्र के वाक्यों को उद्धृत करके बतलाया है : अह अह भंजइ भोगे तह तह भोगेसु वय त भ मा. गा० १२६२ तरुणाविषः परिवहन्ति न शाप्तिरासामिष्टेन्द्रियार्थ विभः परिवरिष" -बृहत्स्वयंभूस्तोत्र, ८२ बाहिरकरणविसुझो अभंतर करणसोधणस्थाए। भ०मा० मा० १३४८ बाह्य तपः परमवुश्चरमाचरस्त्वमाध्यात्मिकस्य तपसः परिवहनार्थम् ।, -हस्वयंभूस्तोत्र, ३ इससे भी स्पष्ट है कि शिवार्य समन्तभद्र के बाद किसी समय हुए हैं। पौर पूज्यपाद-देवनन्दी से पूवं. पतीं हैं, क्योंकि पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में तत्त्वार्थ सूत्र के वें अध्याय के २वें सूत्र की टीका करते हुए माराधना की ५६२ नं. की निम्न गाथा उद्धृत की है : माकंपिय अणुमाणि य जंबिठंबावरंब महमं। छण सहा उलयं बहुजणप्रवस तस्सेवी ।। (१४-८१५) का।। इसके अतिरिक्त निम्न दो गाथानों का भाव भी अध्याय ६ सूत्र ६ को टीका में लिया है सहसाणाभोगियाप्पमाजिब अपस्चवेक्षणिखेवे। केहो दुप्पउत्तो तहोवकरणं च णिवित्ति || संजोयण मं बकरणाणं व तहा पाणभोयणाणं । बुट्ठ णिसिहा मणवचकाया भेवा णिसग्गस्स ॥ "निक्षेपामतुषिषः अप्रत्यानिक्षेपाधिकरण, प्रमष्टनिक्षेपाधिकरणं तहसानिक्षेषाधिकरणमनाभोगनिक्षेपाधिकरण चेति । संयोगो विविध:-भक्तपानसंयोगाधिरणमुपकरणसंयोगाधिकरणं चेति । निसर्गस्त्रिविधः काय निसर्गाधिकरणं, बानिसाधिकरण मनोनिसर्गाधिकरणं वेति । सर्वा० सिप्र०६ सूत्र की टीका इस सब तुलना पर से शिवाय या शिवकोटि के रचना काल पर मच्छा प्रकाश पड़ता है और वे समन्तभद्र पौर पूज्यपाद के मध्यवर्ती किसी समय हुए है। इनका समय देवमन्दी (पूण्यपाव) से पूर्ववर्ती है। माराममा प्रस्तुत ग्रन्थ में २१७० के लगभग गाभाएं हैं जिनमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् भारित और सम्यक
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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