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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
छान्दयोग उपनिषद् में जो ग्रात्म-भेदों का उल्लेख किया गया है। उसके आधार पर डायरान ने भी आत्मा के तीन भेद किये हैं। शरीरात्मा, जीवात्मा और परमात्मा । इस तरह यह आत्म त्रैविध्य की चर्चा अपनी महत्ता को लिये हुए है ।
रचनाएँ
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आचार्य कुन्दकुन्द की निम्न कृतिय उपलब्ध हैं। पंचास्तिकाय प्राभृत, समयसार प्राभृत, प्रवचनसार प्राभृत, नियमसार, श्रष्टपाहुड - (दसणपाहुड, चरित पाहुड, सुत्त पाहुड, बोध पाहुड, भव पाहुड, मोक्ख पाहुड, सील पाहुड, लिङ्ग पाहुड) - वारस अणुवेक्खा और भक्तिसंगहो ।
इन रचनाओं को दो भागों में बाँटा जा सकता है। प्रथम भाग में पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, नियमसार, और समयसार आते हैं। और दूसरे भाग में अभ्य अष्ट प्राभृत आदि ।
इनमें प्रथम भाग कुन्दकुन्दाचार्य के जनतन्त्रानविषयक प्रौढ पाण्डित्य को लिये हुए हैं। और दूसरा भाग सरल एवं उपदेश प्रधान, आचार मूलक तत्त्व चिन्तन की धारा को लिये हुए हैं। कुन्दकुन्दाचार्य को शैली गम्भीर और सरस है, किन्तु विषय का प्रतिपादन सरलता से किया है। व्यवहार और निश्चय मोक्षमार्ग का कथन कि जिसके हृदय मं करते दोनों का सामंजस्य बैठाया है। स्व समय पर समय का वर्णन करते हुए बतलाया अरहंत आदि विषयक अणुमात्र भी अनुराग विद्यमान है वह समस्त श्रागम का धारी होकर भी स्व-समय को नहीं जानता है।
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पंचास्तिकाय - इस ग्रन्थ का नाम पंचास्तिकाय प्राभृत है, क्योंकि इसमें मुख्यतया जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश रूप पांच अस्तिकाय द्रव्यों का वर्णन है । क्योंकि यह अणु अर्थात् प्रदेशों की अपेक्षा महान् हैबहुप्रदेशी है, इसी से इन्हें अस्तिकाय कहा है। ये समस्त द्रव्य लोक में प्रविष्ट होकर स्थित हैं, फिर भी अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं ।
इस ग्रन्थ में प्राचार्य कुन्दकुन्द ने ग्रन्थ के आदि में 'समय' कहने की प्रतिज्ञा की है। श्रीर जीव, पुद्गल, धर्म-अधर्म प्रकाश के समवाय को समय कहा है। इन पांचों द्रव्यों को पंचास्तिकाय कहा है। इन्हीं का इस ग्रन्थ में विशेष कथन किया गया है। सत्ता का स्वरूप बतला कर द्रव्य का लक्षण दिया है, और द्रव्य पर्याय और गुण का पारस्परिक सम्बन्ध बतलाते हुए सप्त भङ्ग के नामों का निर्देश किया है । काल द्रव्य के साथ पांच श्रस्तिकाय मिला कार द्रव्य छह होती है । षट् द्रव्य कथन के पश्चात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चरित्र को मोक्ष मार्ग बतलाते हुए सम्यग्दर्शन के प्रसंग से सप्त तत्वों का कथन किया है । ग्रन्थ के अन्त में निश्चय मोक्षमार्ग का बड़ी सुन्दरता स्वरूप बतलाया है ।
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इस ग्रन्थ पर दो संस्कृत टीकाएं उपलब्ध हैं। जिनमें एक के कर्ता आचार्य अमृतचन्द्र हैं और दूसरी के कर्त्ता जयसेन । अमृतचन्द्र की टीकानुसार गाथाओं की संख्या १७३ है । और जयसेन की टीका के अनुसार १८१ है । प्रवचनसार - यह ग्रन्थ महाराष्ट्रीय प्राकृत भाषा का मौलिक ग्रन्थ है। इसमें २७५ गाथाएं हैं। और वे तीन श्रुतस्कन्धों में विभाजित हैं । प्रथम श्रुतस्कन्ध में ज्ञान की चर्चा ६२ गाथाओं में अंकित है। दूसरे श्रुतस्कन्ध में ज्ञेय तत्व की चर्चा १०८ गाथाओं में पूर्ण हुई है। और तीसरे श्रुतस्कन्ध में ७५ गाथाओं द्वारा चारित्र तत्व का कथन किया गया है ।
श्राचार्य कुन्दकुन्द की यह कृति बड़ी ही महत्वपूर्ण है। यह कृति उनकी तत्वज्ञता, दार्शनिकता श्रीर आचार की प्रवणता से ओत-प्रोत है। इसके अध्ययन से उनकी विद्वत्ता, तार्किकता और आचार निष्ठा का यथार्थ रूप दृष्टिगोचर होता हैं। इसमें जैन तत्व ज्ञान का यथार्थ रूप बहुत ही सुन्दरता से प्रतिपादित है ।
ग्रन्थ के प्रथम श्रुतस्कन्ध में इन्द्रिजन्य ज्ञान और इन्द्रियजन्य सुख को हेय बतलाते हुए। अतीन्द्रियज्ञान श्रीर अतीन्द्रिय सुख को उपादेय बतलाया है। और भतीन्द्रिय ज्ञान तथा प्रतीन्द्रिय सुख की सिद्धि करते हुए हृदयग्राही युक्तियों से आत्मा की सर्वज्ञता को सिद्ध किया गया है । दूसरे श्रुतस्कन्ध में द्रव्यों की चर्चा की है, वह पंचास्तिकाय