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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भाग २ ६६० माघ शुक्ला दशमी के दिन 'दर्शनमार की रचना की है। दर्शनसार में अनेक मतों तथा संघो की उत्पत्ति प्रादि को प्रकट करने वाला अपने विषय का एक ही ग्रन्थ है। देवसेन ने पूर्वाचार्यकृत गाथाओं का संकलन कर उसे दर्शनसार का रूप दिया है। जो अनेक ऐतिहासिक घटनात्रों को सूचनादि को लिए हुए है। इसमें एकान्तादि प्रधान पांच मिथ्यामतों और द्रविड़, यापनीय, काष्ठा, माथुर और भिल्ल संघों की उत्पत्ति का कुछ इतिहास उनके सिद्धान्तों के उल्लेख पूर्वक दिया है। पीर द्रविड़ादि संघों को जनाभास बतलाया गया है। देवसेन ने अपने गुरु का और गणगच्छादि की कोई उल्लेख नहीं किया। जिससे उनके सम्बन्ध में विशेष प्रकाश डाला जाता। दर्शनसार में दी गई तिथियों का समय यिनम की मृत्यु के अनुसार है। किन्तु वि० सं० के साथ ननका कोई सामंजस्य ठीक नहीं बैठता । अतः उन तिथियों का संशोधन करना आवश्यक है। यदि उन तिथियों को शक संवत् की मान लिया जाय तो समयसम्बन्धी वे सभी बाधायें वे दूर हो जाती हैं। जो उन्हें विक्रम संवत मानने के कारण उत्पन्न होती हैं और ऐतिहासिक श्रखलाओं में क्रम सम्बद्धता बनी रहती है। ५० नाथुराम जी प्रेमो ने दर्शनसार को समालोचना की है। दर्शनसार के अतिरिक्त देवसेन की निम्न रचनाएं और मानी जाती हैं । तत्त्वसार, पाराधनासार और नयचक्र ।। तत्त्वसार-७५ गाथात्मक एक लष अध्यात्म ग्रन्थ है जिसमें स्वगत और परगत के भेद रो तत्त्व का दो प्रकार से निरूपण किया है । और बसलाया है कि जिसके न क्रोध है न मान है, न माया है और न लोभ है, न शल्य है, न लेश्या है, जो जन्म-जरा और भरण से रहित है वही निरंजन प्रात्मा है। __अस्स ण कोहो माणो माया लोहो ण सल्ल लेस्सायो। जाइ जरा मरणं चि य णिरंजणो सो प्रहं भणियो।' जो कर्मफल को भोगता हुआ भी उसमें राग-द्वेष नहीं करता है वह संचित कर्म का विनाश करता है और वह नतन कर्म से भी नहीं बंधता । अन्त में कवि ग्रन्थ का उपसंहार करता हुमा कहता है कि जो सदष्टि देवसेन मुनि रचित तत्त्वसार को सुनता तथा उसकी भावना करता है, वह शाश्वत सुख को प्राप्त करता है। माराधनासार—यह एक सौ पन्द्रह गाथात्मक ग्रन्थ है, जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सपरूप चार आराधनामों के कथन का सार निश्चय और व्यवहार दोनों रूप से दिया है। विषय विवेचन की शैली बडी सुन्दर है। मरते समय पाराधक कौन होता है ? इसका अच्छा कथन किया है और बतलाया है कि जिस अध्य ने क्रोधादि कषायों को नष्ट कर दिया है, सम्यग्दृष्टि है और सम्यज्ञान से सम्पन्न है अन्तरंग, बहिरंग परिग्रह का त्यागी है बह मरण समय आराधक होता है । यथा णिय कसाओ भन्यो दंसणवन्तो हणाणसंपण्णो। विह परिगहणतो मरणे श्राराहपो हवा ।।१७ जो सांसारिक सुख से विरक्त है । शरीरादि पर इष्ट वस्तुनों से प्रीतिरूप राग जिसका नष्ट हो गया है-- नाय है, अथवा संसार शरीर भोगों से निवेद को प्राप्त है, परमोपशम को प्राप्त है जिसने अनन्तानुबंधिचतुष्टय, मिथ्यात्व रूप मोहनीय कर्म की इन सात प्रकृतियों का उपशम है, और अन्तर बाह्यरूप विविध प्रकार के तपों से जिसका शरीर तप्त है, वह मरण समय में आराधक होता है, जो प्रात्म स्वभाव में निरत है, पर द्रव्य जनित परिचत रूप सुखरस से रहित है, राग-द्वेष का मथन करने वाला है, वह मरण समय में प्राराधक होता है, जैसा कि निम्न गाथानों से स्पष्ट है : १. रइयो दंसणसारो हारो भन्वाण णवसए नवई । सिरि पासणाह मेहे सवि सुद्ध माह सुद्धदसमोए ।।५० सिरि देवसेए गणिया धाराए संवसंतेरण। -दर्शनसार
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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