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________________ बारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, भाचार्य ३३६ पादरविन्द भगवदर्हत्यरमेश्वरवदनविनिर्गत श्रुताम्भोधिवर्द्धन सुधाकरे श्रीमदमरकोतिरावल्लवतोश्वरचरण सरसीरह षट्पदवृत्तिविलासविरचिते धर्मपरीक्षा ग्रंथे-'आदि गद्य दिया है। दुसरे ग्रंथ शास्त्रसार का कुछ भाग 'प्राक् काव्यमाला' नाम की कनड़ी-ग्रंथमाला में प्रकाशित हया है। परंतु पूरा ग्रंथ इस समय प्राप्य नहीं है। कवि ने अपने ग्रंथ में अपने समय आदि का कृछ भी परिचय नहीं दिया है। परत कवि ने जिन शुभकीति व्रती, सैद्धान्तिक माघनन्दि यति, भानु कीर्तियति, धर्मभूषण, अमर कीति (कविका गुरू),अभयसूरी, वादीश्वर आदि जैनाचार्यों का स्तवन किया है। उनके समय का विचार करने से इसका समय १९६० के लगभग निश्चित होता है। उक्त प्राचार्यों में से शुभकीति १११५ में दिबंगत होने वाले मेषचन्द्र के समकालीन थे। माघनन्दि सैद्धान्तिका समय ११६० है भानुकीर्ति ११६३ में समाधिस्थ होने वाले देवकीति के सहपाठी थे। अभयसरि, बल्लाल नरेश और चारुकीर्ति पण्डित के समकालीन थे। क्योंकि ऐसा उल्लेख मिलता है कि अभयसरिने इन दोनों को एक बड़ी भारी व्याधि से मुक्त करके श्रवण बेलगोल में निवास कराया था। वल्लाल विष्णवर्धन राजा का भाई था और चारकीर्ति श्रुतकीति का पुत्र था। श्रवणबेलगुल के जैन गुरुग्रां न 'चारुकाति पण्डिताचार्य' का पद १११७ के अनंतर धारण किया था। इससे मालम होता है कि यह चारुकाति श्रवण बेलगोल का प्रथम चारुकीति पण्ठित होगा। श्रवण बेलगोल के १११ वें शिलालेख में विशालकोति के शिष्य शुभकाति, शुभकीति के शिष्य धर्मभूषण और धर्मभूषण के शिष्य अमरकीति बतलाये गये हैं। और शुभ कोति १११५ में दिवगत होने वाले मेघचन्द्र के समकालीन हैं । इसलिये शुभकीति के शिष्य धर्मभूषण और प्रशिष्य अमरकोति का समय ११५० के लगभग होना चाहिये। शिलालेख की यह गुरु परम्परा धर्मपरीक्षोल्लिखित मुरुपरम्परा से बराबर मिलती है। किन्तु यह शिला लेख शक १२६५ परिघाविसंवत्सर का है। अतः समय विचारणीय है। देखो, कर्नाटक जैन कवि छत्रसेन-काष्ठासंघ माथरान्वय के विज्ञान प्राचार्य थे । जो उच्छण नगर में अपने व्याख्याना से समस्त सभाजनों को सन्तुष्ट किया करते थे । उच्छण नगर में उस समय परमारवंशीय मंडलीक (मदनदेव) नाम के राजा का पौत्र चामुण्डराज का बिजयराज पुत्र स्थलिदेश का शासक था । उक्त नगर में उस समय भूपण नामक एक जैन धावक ने प्रादिनाथ का एक मनोहर जिन मन्दिर बनवाकर उसमें वषभनाथ (आदिनाथ) की प्रतिमा को वि० सं०११६६ वैशाख सुदी तीज सोमवार सन् ११०९ई० को प्रतिष्ठा सम्पन्न कराई थी । अतः प्रस्तुत छत्रसेनाचार्य का समय ईसा की११वीं शताब्दी का अन्तिम चरण और १२वीं शताब्दी का पूर्वाध है। सागरनन्दी सिद्वान्तदेव सागरनन्दी सिद्धान्त देव-मूलसंघ देशीयगण पुस्तक गच्छ कोण्डकुन्दान्बय कोल्हापुर सामन्त बसदि से प्रतिबद्ध माधनन्दि के प्रशिष्य और शुभचन्द्रविद्यदेव के शिष्य थे। रेचिरस सेनापतिने १२०० ईस्वी ने लगभग श्रवण बेलगोल में शान्तिनाथ का मन्दिर बनवाया था। कलचुरि कुल के सचिवोत्तम रेचरस ने बल्लालदेव के चरणों में प्राधय पाकर आरसिय केरे में सहस्त्रकूट जिनालय की स्थापना की। भगवान को अष्टविधपूजा, पुजारी और सेवको की आजीविका तथा मन्दिर की मरम्मत के लिए राजा बल्लाल ने 'हन्दर हल्लु' ग्राम प्राप्त करके उक्त सागर मान्टि को प्रदान किया। रेचस द्वारा स्थापित इस सहस्त्रकूट जिनालय के लिए जैनों द्वारा एक करोड़ रुपया इक्ठा १. यो माथुरान्वय नभस्थलतिम्ममानोर्व्याख्यानरंजितसमस्तसभाजमस्य । श्रीच्छामेन सगुरोश्चरणारविंद सेवापरोभवश्न्यमनाः सदेव ॥१॥ -अ\णा शिलालेख अजमेर म्यूजियम् २. विक्रम संवत् ११६६ वैशाख सुदी ३ सोमे वृषभनाथस्य प्रतिष्ठा । धीवृषभनाथ धाम्नः प्रतिष्ठिते भूषणेन बिम्बमिदं उच्छक नगरेस्मिन्निह जगतो वृषभनाथस्य ॥२६ अर्थणालेख वर्ष सहस्र याते पटू पष्ठयुत्तर शतेन संयुक्त । विक्रम भानोः काले स्थलि विषय भवति सति विजय राज्ये
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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