SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 350
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३८ बैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भाग २ गुणभद्र गुणसत-मुलसंघ, देशीयगण, पुस्तकगच्छ पौर कोण्ड कुन्दात्वय के दिवाकर थे। इनके शिष्य नयकीति. सिद्धान्तदेव थे और प्रशिध्य भानुकीति, जिन्हें शक सं० १०६५ के विजय संवत् में होयसल वंश के बल्लाल नरेश ने पार्व ब्रतीन्द्र को चौवीसवें तीर्थकरों की पूजन हेतु 'मारहल्लि' नाम का एक गाँव दान में दिया था। अतएव इनका समय वि० संम्बत् १२३० है। और गुणभद्र का समय इससे ३० वर्ष पहले माना जाय तो भी विक्रम की ११ वीं शताब्दी का अन्तिमचरण हो सकता है।' (देखो, जैनलेख सं० भा० ११०३८५) कर्णपार्य-के कण्णय, कर्णय, और कण्णमय मादि नामान्तर हैं। ये नाम इसके ग्रन्थों में जगह-जगह पाये जाते हैं। किले कल दुर्ग के स्वामी गोवर्धन या गोपन राजा के विजयादित्य, लक्ष्मण या लक्ष्मी घर वर्षमान और शान्ति नाम के चार पुत्र थे। इनमें से कवि लक्ष्मीधर का प्राश्रित था। इस कवि के बनाये हए नेमिनाथ पुराण, वीरेश चरित और मालती माधव ये तीन ग्रन्थ बताये जाते हैं। परन्तु इस समय के बल नेमिनाथ पुराण ही उपलब्ध है। इसमें २२ वें तीर्थंकर नेमिनाथ का चरित वर्णित है। ग्रन्थ में १४ पाश्वास हैं और वह चम्पू रूप है। प्रशस्ति से ज्ञात होता कि उने कवि ने लक्ष्मीधर की प्रेरणा से बनाया है। इसमें लक्ष्मीधर राजा की और कृष्ण को समता बतला कर स्तुति की है । लक्ष्मीधर के गुरु नेमिचन्द्र मुनि थे, और कवि के गुरु कल्याण कीति थे। कल्याण कीति मलधार गणाचन्द्र के शिष्य और मेषचन्द्र विद्यदेव के-जो सन् १११५ में मृत्यु को प्राप्त हुए हैं। सतीर्थ या सहपाठः । गुणचन्द्र भुवनकमल्ल राजा ११६६ से १०६७ तक ) के समय में उनके गुरु थे। कविता सुगम और ललित है। रुद्रभट्ट (१२८० अण्डव्य (१२३५) मंगरस १५०६) और दोडुय्य प्रादि कवियों ने इसकी प्रशसा की है। (कर्नाटक जैनकवि) श्रुतकीति-(पंचवस्तु व्याकरण ग्रन्थ के कर्ता)नान्द संघ की गुर्वावली में श्रुतकीर्ति को वैयाकरण भास्कर लिखा है। श्रुतकीति की गुरु परम्परा ज्ञात नहीं है। और उक्त व्याकरण ग्रंथ में कर्ता का नाम नहीं है। अन्य के पांचवे पत्र में श्रुतकीति नाम पाया है। जिससे मालम होता है कि वे व्याकरण ग्रंथ के रचयिता हैं: "याम-दर-वर्ण-कर-चरणादीनां संधीनां बहूनां संभवत्वात् संशयानः शिष्यः स प्रच्छतिस्म-कस्सन्धिरिति । सज्ञास्वर प्रकृतिलज विसर्ग जन्मा सन्धिस्तु इतीत्य मिहाहरन्ये । तत्र स्वर प्रकृति हल्ज विकल्पतोऽस्मिन् संधि विघा कथयति थतकोतिरायः।" कनड़ी भाषा के 'चन्द्रप्रभ चरित' नामक ग्रंथ के कर्ता प्रगल कवि ने श्रुतकीर्ति को अपना गुरु बतलाया है। "इदु परमपुरुनाथकुलभूभृत समुद्भूत प्रबचन सरित्सरिन्नाथ-श्रुतकीर्ति विद्य चक्रवर्ति पद पानिधान दीपति श्रीमदगल देव विरचिते चन्द्रप्रभचरिते-" इत्यादि । यह चन्द्रप्रभ चरित शक सं० १०११ (वि.सं. ११४६) में बन कर समाप्त हुआ है। अतएव यह श्रुतकीति विद्य चक्रवर्ती विक्रम की १२ वीं शताब्दी के विद्वान हैं। वृत्ति विलास वृत्ति विलास--यह अमरकीर्ति के शिष्य थे। इसके दो ग्रंथों का धर्म परीक्षा और शास्त्र सार का-पता चलता है। धर्म परीक्षा, अमितगतिकृत संस्कृत धर्म परीक्षा के आधार से बनाई है। इसको रचना बहुत ही सरल और सुन्दर है । इसके गद्य-पद्य मय दश प्राश्वास हैं । प्रारम्भ में वर्धमान स्वामी की स्तुति की है, फिर सिरपरमेष्ठी, यक्ष यक्षिणी और सरस्वती को नमस्कार कर केवलियों से लेकर वितीय हेमदेव तक गुरुमों का स्मरण किया है । ग्रंथ के अन्त में निम्न पुष्पिका वाक्य दिया है:--विनमदमरमुकुटतटघटितमणिगणमरीचि मजरी पुजरंजित १ विद्य. श्रुतकीख्यिो वैयाकरण भास्करः।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy