SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ मज्जनसम्म पका ध्यान करके ही सिद्धसेन सिंह के स्वरूप का साक्षात् परिचय प्राप्त किया था जिसका चित्रण उनके स्मरण पद्य में पाया जाता है। १०८ वीरसेन जिनसेन ने घवला - जयघवला टीका में नयों का निरूपण करते हुए सन्मतिसूत्र की गाथाओं को प्रमाण रूप में उद्धृत किया है और बागम प्रमाण के रूप में मान्य किया है। सन्मति सूत्र के दूसरे काण्ड में जीव के प्रधान लक्षण ज्ञान और दर्शन का विस्तृत विवेचन किया है, और ज्ञान दर्शन के यौगपद्य और क्रमशः दोनों पक्षों को अनुचित बतलाकर लिखा है कि केवल ज्ञानी के दर्शन और ज्ञान में कोई भेद नहीं है। अतः उनके एक साथ या क्रमशः होने का प्रश्न ही नहीं उठता। दिगम्बर परम्परा में केवल ज्ञानी के ज्ञान और दर्शन प्रतिक्षण युगपद् माने गये है । और श्वेताम्बर परम्परा में उनका उपयोग क्रमशः माना है। सिद्धसेन ने दोनों पक्षों को न मानकर प्रभेदवाद को स्थापित किया है। केवल ज्ञान श्रीर केवल दर्शन के अभेदवाद की स्थापना की गई है, इसी में जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य में उसकी कड़ी आलोचना की है। उसी तरह श्रभेदवाद की मान्यता युगपदवादी दिगम्बर परम्परा के भी प्रतिकूल है । इसीलिए आचार्य वीरसेन ने भी उसे मान्य नहीं किया है। कलंक के ग्रन्थों पर प्रभाव 乖 सिद्धसेन ने सन्मति तर्क में गुण और पर्याय में अभेद की स्थापना की है। उन्होंने पर्याय से गुण को भिन्न नहीं माना है | अकलंकदेव ने तत्वार्थवार्तिक के पाँचवें अध्याय के 'गुणपर्ययवद्रव्यम्' (५-३७ पृ. ५१ ) सूत्र भाष्य में उक्त चर्चा का समाधान तीन प्रकार से किया है। पहले तो आगम प्रमाण को देकर गुण की सत्ता सिद्ध की है। फिर 'गुण एव पर्यायाः इति वा निर्देश:' समास करके गुण को पर्याय से अभिन्न बतलाया हैं। सिद्धसेनाचार्य की यही मान्यता है । इस पर यह शंका की गई कि यदि गुण ही पर्याय है तो केवल गुणवद् द्रव्यं या पर्यायवत् द्रव्यं कहना चाहिए था । गुण पर्ययवत् द्रव्य का लक्षण क्यों कहा ? इसके उत्तर में यह समाधान दिया है कि जनेतरे मत में गुणों को द्रव्य से भिन्न माना गया है। अतः उसकी निवृत्ति के लिए दोनों का ग्रहण करके द्रव्य के परिवर्तन को पर्याय कहा गया है, उसी के भेद गुण हैं। गुण भिन्न जातीय नहीं है। इस विवेचन में प्रकलंकदेव ने सिद्ध सेन के मत को मान्य किया है। इससे सिद्धसेन का अकलंक पर प्रभाव स्पष्ट है। अकलंकदेव ने लधीयस्त्रय की ६७ वीं कारिका में सम्मति सूत्र की १-३ गाथा का संस्कृतीकरण किया है : तिस्थय रवयण संगह विसेस पत्थार मूल बागरणी । वट्टियो य पज्जवणश्रो य सेसा विथप्पालं ।। १- ३ सतः तीर्थकर वचन संग्रह विशेष मूल व्याकरणौ द्रव्य पर्यायार्थिको निश्चेतव्यौ । (लघीयस्त्रय स्व. वू. श्लोक ६७) तथा तत्त्वार्थ वार्तिक पृ. ८७ में सम्मति की ) 'पण्णवणिज्जाभावा' नाम की गाथा उद्धृत की है और इसी में सिद्धसेन के अनेक मन्तव्यों का भी उल्लेख किया गया है। समय प्रस्तुत सिद्धसेन सन्मतिसूत्र और कुछ द्वात्रिंशतिकाओं के कर्ता थे। वे पूज्यपाद (देवनन्दी ) हरिभद्र ७५०-८०० ई० जिनदासगणी महत्तर और जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण से भी पूर्ववर्ती हैं। पूज्यपाद ने जैनेंद्र व्याकरण में वेत्तेः सिद्धसेनस्य', वाक्य में सिद्धसेन के मत विशेष का उल्लेख किया है। उनके मतानुसार 'विद्' धातु' के 'र' का श्रागम होता है भले ही वह सकर्मक हो । उनकी नौमी द्वात्रिंशतिका के २२वें पद्य के 'विद्वते' वाक्य में 'र' श्रागम वाला प्रयोग पाया जाता है। अन्य वैयाकरण 'सम' उपसर्गपूर्वक अकर्मक 'विद्' धातु के 'र' का आगम स्वीकार करते हैं । परन्तु सिद्धसेन ने सकर्मक 'विद्' धातु का प्रयोग बतलाया है। देवनन्दी ने 'तस्वार्थवृत्ति में सात श्रध्याय के १३वे सूत्र की टीका में --- वियोजयति षाभिनं च बधेन संयुज्यते' पद्यांश को जो तीसरी द्वात्रिंशतिका के १६वे पथ
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy