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________________ सिद्धसेन १०७ सिद्धसेन सिद्धसेन की गणना दर्शन प्रभावक आचार्यों में की जाती है। वे अपने समय के विशिष्ट विद्वान्, वादी और कवि थे और तर्क शास्त्र में अत्यन्त निपुण थे । दिगम्बर दवेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में इनकी मान्यता है । उपलब्ध साहित्य में सिद्धसेन का सबसे प्रथम उल्लेख आचार्य अकलंक देव के तत्त्वार्थवानिक में पाया जाता है । कलंक देव ने उसमें इति शब्द के अनेक अर्थो का प्रतिपादन करते हुए इति शब्द का एक अर्थ शब्द प्रादुर्भाव भी किया है । उसके उदाहरण में श्रीदत्त और सिद्धसेन का नामोल्लेख किया है । ववचिच्छद प्रादुर्भाव वर्तते इति श्रीदत्तमिति सिद्धसेनमिति । इनमें श्रीदत्त को प्राचार्य विद्यानन्द ने त्रेसठ वादियों का विजेता और जल्पनिर्णय नामक ग्रन्थ का कर्ता बतलाया है। प्रस्तुत सिद्धमेन वही प्रसिद्ध सिद्धसेन जान पड़ते हैं, जिनका उल्लेख पूज्यपाद (देवनदी) ने जैनेन्द्र व्याकरण में किया है और जिनका प्रभाव अकलंक देव की कृतियों पर परिलक्षित होता है । दिगम्बर परम्परा के धवला-जवधनला जैसे टीका ग्रन्थों में 'सन्मति सूत्र' के अनेक पद्य उद्धत हैं । सिद्धसेन विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। इसी से उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों द्वारा उनका स्मरण किया गया है। हरिवंशपुराण के कर्ता पुन्ना संघीय जिनसेन ने अपने पूर्ववर्ती विद्वानों का स्मरण करते हुए पहले समन्तभद्र का और उसके वाद सिद्धसेन का स्मरण किया है । जान पड़ता है कि उन्होंने ऐतिहासिक कमानुसार याचार्यों का स्मरण किया है। सिद्धसेन के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है कि जगत्प्रसिद्धस्य वृषभस्येव निस्तुषाः । बोधयन्ति सतां बुद्धिं सिद्धसेनस्य सूक्तयः ॥ - जिनका ज्ञान जगत में सर्वत्र प्रसिद्ध है उन सिद्धसेन की निर्मल सूक्तियाँ ऋषभदेव जिनेन्द्र की सूक्तियों के समान सज्जनों की बुद्धि को प्रबुद्ध करती हैं। इससे पहले जिनसेन ने समन्तभद्र के स्मरण में उनके वचनों को वीर भगवान के वचन तुल्य बतलाया है। पश्चात् सिद्धसेन की सूक्तियों को ऋषभदेव के तुल्य बतलाकर उनके प्रति समन्तभद्र से भी अधिक आदर प्रगट किया है। किन्तु उनकी किसी रचना विशेष का कोई उल्लेख नहीं किया । परन्तु भगवज्जिनसेन ने अपने महापुराण में उनके 'सन्मति सूत्र' का जरूर संकेत किया है। जैसा कि उनके निम्न पद्य से प्रगट है: प्रवादिकरियूथानां केसरी - नयकेसरः । सिद्धसेनक विजयाद्विकल्पनस्वरांकुरः ।। - वे सिद्धसेन कवि जयवन्त हों, जो प्रवादरूपी हस्तियों के यूथ ( झुण्ड ) के लिए सिंह के समान हैं । नय जिसके केसर (गर्दन के बाल) हैं, और विकल्प पैने नाखून हैं । सिद्धसेन का सन्मति सूत्र तर्क प्रधान ग्रन्थ है । इसमें तीन काण्ड या अध्याय हैं । उनमें से प्रथम काण्ड में कान्तवाद की देन नय और सप्त भंगी का मुख्य कथन है। दूसरे काण्ड में दर्शन और ज्ञान की चर्चा है, इसी में केवलज्ञान और केवलदर्शन का प्रभेद स्थापित किया गया है और तीसरे काण्ड में पर्याय और गुण में अभेद की नई स्थापना की गई है। इस तरह यह ग्रन्थ एक महत्वपूर्ण दार्शनिक कृति है । आगम का अवलम्बन होते हुए भी तर्क को प्रश्रय दिया गया है। क्योंकि तर्कवाद में विकल्प जाल की ही प्रमुखता होती है, जिसमें प्रतिवादी को परास्त किया जाता है | सन्मति सूत्र का प्रथम काण्ड जहाँ सिद्धसेन रूपी सिंह के नयकेसरत्व का बोधक है, वहाँ दूसरा tetus उनका विकल्प रूपी पैने नखों का अवभासक है । केवली के दर्शन और ज्ञान में प्रभेद सिद्ध करने के लिए उन्होंने जो तर्क प्रस्तुत किए हैं, प्रतिपक्षी भी उनका लोहा माने बिना नहीं रह सकता। ऊपर के इस विवेचन से स्पष्ट है कि 1 १. द्विप्रकारं जग जल्पं तत्द प्रातिभगोचरम् । विवादिनां जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये ॥ ( तत्वा० श्लो० पृ० २८० ) २. देखो, तत्वाधं वार्तिक १– १३ पृ० ५७ ।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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