SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ भाई थे। सोमदेवाचार्य ने नीतिवाक्यामत की प्रशस्ति में महेन्द्रदेव भट्रारक का अपने को अनुज लिखा है और उन्हें 'वादीन्द्रकलामल बतलाया है। वे उन महेन्द्र देब से भिन्न नहीं है, जिनका उल्लेख रामसेन (तत्त्वानुशासन के कर्ता ) ने अपने शास्त्र गुरुत्रों में किया है। परभणी के ताम्रशासन से ज्ञात होता है। कि प्रस्तुत महेन्द्रदेव नेमिदेव के नदन मे शिष्यों में से एक थे। जिनमें एक शतक शिष्यों के प्रवरज (अनुज) और एक शतक शिष्यों के पूर्वज सोमदेव थे। चूंकि यह ताम्रशासन यशस्तिलक चम्पू की रचना से सात वर्ष बाद शक सं० ८८८ के व्यतीत होने पर वंशाख की पूर्णिमा को लिखा गया है अतः इन महेन्द्रदेव का समय शक सं०७० से १८८तक सुनिश्चित है अर्थात् महेन्द्रदेव सन् ६४८ से १६६ ई. के अर्थात् ईसा की १०वीं शताब्दी के मध्यवर्ती विद्वान हैं। कन्नौज के राजा महेन्द्रपाल प्रथम या द्वितीय ने सोमदेव के गुरु नेमिदेव' से दीक्षा ग्रहण की थी; अथवा सोमदेव महेन्द्रपाल राजा का कौटाम्बिक दृष्टि से छोटा भाई था, यह कोरी कल्पना जान पड़ती है। क्योंकि महेन्द्र पाल का 'वादीन्द्र कालानल' विशेषण भी उनके राजस्व का द्योतक नहीं है। प्रत्युत नीतिवाक्यामत के टीकाकार ने उन्हें शिव भक्त के रूप में उल्लेखित किया है। तत्त्वानुशासन के कर्ता रामसेन ने अपने विद्याशास्त्री गुरुपों में जिन . महेन्द्र देव का नामोल्लेख है, बे सोमदेव के बड़े गुरु भाई ही जान पड़ते हैं। सोमदेव देवसंघ के आचार्य यशोदेव के प्रशिष्य और नेमिदेवाचार्य के शिष्य थे । जो तेरानवे वादियों के विजेता थे। देवसंघ लोक में प्रसिद्ध है। इसकी स्थापना प्राचार्य अर्हवली ने की थी। इस संघ में अनेक विद्वान हो गए हैं। यह अंकलंक और देवनन्दि (पूज्यपाद) इसी संघ के मान्य विद्वान थे। यशोदेव, नेमिदेव और महेन्द्रदेव आदि देवान्त नाम इसी देव संघ के द्योतक हैं। नीतिवाक्यामृत प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि सोमदेव महेन्द्रदेव के लघु भ्राता थे। और स्याहादाचलसिंह, ताकिक चक्रवर्ती, वादीमपंञ्चानन, बाक्कल्लोलपयोनिधि, तथा कविकुलराज, उनकी उपाधियों थीं। परभणी ताम्रपत्र में सोमदेव को 'गोड़संघ' का विद्वान लिखा है। प्रोझा जी के अनुसार प्राचीन काल में गौड़नाम के दो देश थे । पश्चिमी बंगाल और उत्तरी कोशल-अवधका एक भाग, कन्नौज साम्राज्य, का अधिकार भी गौड़पर रहा है। सोमदेव का संस्कृत भाषा पर विशेष अधिकार था । न्याय, व्याकरण, काव्य, छन्द, धर्म, प्राचार और राजनीति के वे प्रकाण्ड पंडित थे। महाकवि धर्म शास्त्रज्ञ और प्रसिद्ध दार्शनिक थे। सोमदेव की ख्याति उनके गद्य-पद्यात्मक काव्य यशस्तिलक और राजनीति की पुस्तक नीतिवाक्यामृत से है। यदि इनमें से नीति वाक्यामृत को छोड़ भी दिया जाय तो भी अकेला यशरितलक ग्रन्थ ही उनके वैदुष्य के परिचय के लिये पर्याप्त है। उसमें उनके वैदुष्य के अपूर्व कप दिखाई देते हैं। संस्कृत की गद्य-पद्य रचना पर उनका पूर्ण प्रभत्व है। जैन सिद्धान्तों के अधिकारी विद्वान होते हुए भी दे इतर दर्शनों के दक्ष समालोचक हैं। राजनीति के तो वे गंभीर विद्वान हैं ही, इस तरह उनकी दोनों प्रसिद्ध रचनाएँ परस्पर में एक दूसरे की पूरक है। नीतिवाक्यामत को प्रशस्ति का निम्न पद्य इस प्रकार है:-- सकल समयत वाकलो ऽसि वावि, न भवसि समयोक्ती हंस सिद्धान्तदेवः । न वचन विलासे पूज्यपादोऽसि तस्वंयवसि कथमिवानी सोमदेवेन सार्धम् ॥' तस्मात्तपः श्रियो भर्ता (k) लोकानां हृदयंगमाः। वभवबहवःशिवारलानीव तदाकरात् ॥१७ तेषां शतस्यावरणः शतस्य तथा भवत्पूर्वज एव धीमान् । थी सोमदेवतपतः श्रुतस्म स्थान यशोधाम गुणोजितथीः ॥१८ २. श्री मानक्षिा स देवसंघ शिवको बेधीयशः पूर्वकः । शिष्यस्तस्य बभूव सद्गुणनिधिः श्रीनेमिदेवावयः । तस्यान चर्यतप: स्थितस्त्रिनवतेर्जेतुमहावादिनां, शिष्योऽभदिह सोमदेव इति यस्तस्यष काव्यक्रमः ।।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy