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________________ नवम 'वीं ताब्दी के आचार्य यह पद्य एक वादी के प्रति कहा गया है कि तुम समस्त दर्शनों के तर्क में अकलंक देव नहीं हो, और न आगमिक उक्तियों में हंस सिद्धान्त देव हो, न वचन विलास में पूज्यपाद हो, तब तुम कहो इस समय सोमदेव के साथ कैसे बाद कर सकते हो? ___ उसी प्रशस्ति के अन्तिम पद्य में कहा गया है कि सोमदेव की वाणी वादिरूपी मदोन्मत्त गजों के लिये सिंहनाद के तुल्य है । वाद काल में वृहस्पति भी उनके सम्मुख नहीं ठहर सकता' ।। सोमदेव ने अपने व्यवहार के सम्बन्ध में लिखा है कि मैं छोटों के साथ अनुग्रह, बराबरी वालों के साथ सुजनता और बड़ों के साथ महान् प्रादर का वर्ताव करता हूं। इस विषय में मेरा चरित्र बड़ा ही उदार है । परन्तु जो मुझे एंट दिखाता है, उसके लिये, गर्वरूपी पर्वत को विध्वंस करने वाले मेरे वज्र वचन कालस्वरूप हो जाते है। "अल्पेऽनुग्रह घोः समे सुजनता भान्ये महानावरः, सिद्धान्तोऽय मुवात्त चित्त चरिते श्री सोमदेवे मयि । यः स्पर्धेत तथापि दर्पदुदृता प्रीतिप्रगाढाग्रहः स्तस्या खवितगर्वपर्वतपविर्मद्वाक्कृतान्तायते ॥" प्राचार्य सोमदेव ने यशस्तिलक को उत्थानिका में कहा है कि जैसे गाय घास खाकर दूध देतो है वैसे ही, जन्म से शुष्क तक का मभ्यास करने वालो मेरी बुखि से काव्य धारा निसुत हुई है। इससे स्पष्ट है कि सामदव ने अपना विद्याभ्यास तर्क से प्रारम्भ किया था और तक ही उनका वास्तविक व्यवसाय था। इनको ताकिक चक्रवर्ती और वादीभ पंचानन आदि उपाधियां भी इसका समर्थन करती हैं। यशस्तिलक चम्पू से ज्ञात होता है कि सोमदेव का अध्ययन विशाल था । और उस समय में उपलब्ध न्याय, नोति, काव्य, दर्शन, व्याकरण आदि साहित्य से चे परिचित थे। यद्यपि सोमदेवाचार्य ने अनेक ग्रन्थों की रचना की है, यशस्तिलक चम्पू, नीतिवाक्यामृत, अध्यात्मतरंगिणी (ध्यान विधि ) युक्ति चिन्तामणि, त्रिवर्ग महेन्द्रमातलि संजल्प, षण्णवति प्रकरण, स्याद्वादोपनिषत् और सुभापित ग्रन्थ । इन रचनाओं में से इस समय प्रारम्भ के तीन ग्रन्थ ही उपलब्ध हैं। शेष ग्रन्या का केवल नामोल्लेख हो मिलता है । नोतिवाक्यामृत को प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि सोमदेवाचार्य ने 'पण्णबति' प्रकरण, युक्ति चिन्तामणि सूत्र, महेन्द्रमातलिसंजल्प और यशोधरचरित की रचना के बाद ही नीति वाक्यामृत को रचना की गई है। यशस्तिला चम्पू-यशस्तिलक चम्पू के पांच प्राश्वासों में गद्य-पद्य में राजा यशोधर की कथा का चित्रण किया गया है। राजा यशोधर को कथा बड़ी ही करुणा जनक है। हिंसा के परिणाम का बड़ा ही सुन्दर अंकन किया गया हैं। आटे के मुर्गा मुर्गी बनाकर मारने से अनेक जन्मों में जो घोर कष्ट भोगने पड़े, जिनको सुनने से रोंगटे खडे हो जाते है। प्राचार्य सोमदेव ने यशोधर और चन्द्रमति के चरित्र का यथार्थ चित्रण किया है । और अवशिष्ट तीन प्राश्वासों में उपासकाध्ययन का कथन किया गया है-श्रावक धर्म का प्रतिपादन है। इसमें ४६ कल्प हैं जिनके नाम भिन्न भिन्न हैं। प्रथम कला का नाम 'समस्तसमयसिद्धान्तावबोधन है। जिसमें सभी दर्शनों की समीक्षा की गई है। दूसरे कल्प का नाम 'आप्तस्वरूप मीमांसन' है, जिसमें प्राप्त की मौमांसा करते हुए उनके देवत्व का निरसन किया है। तीसरे का नाम 'पागमपदार्थ परोक्षण' है-जिसमें पहले देव की परीक्षा करने के बाद उनके बचनों को परीक्षा करने का निदा किया गया है । चौथे कल्प का नाम 'मुहतोन्मथन' है जिसमें मूढतानों का कथन किया गया है। इसोतरह अन्य कल्पों का विवेचन किया गया है। इससे स्पष्ट है कि सोमदेव का उपासकाध्ययन कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है । और प्रसंगवश जैनधर्म के सिद्धान्तों का विस्तार के साथ प्रतिपादन किया गया है। -- . .- - १. धन्धि बोधविध सिन्धमिहनादे, वादि द्विपोद्दलनदुर्घरवाविवाद। श्री सोमदेवमुनि वचना रसाल, वागीश्वरोऽपि पुरतोऽस्ति न वादकाने ।। २. परभणी ताम्रपत्र में उन्हें सुभाषितां का कर्ता भी लिखा है।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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