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जैन धर्म का चीन इतिहास-भाग २ यशस्तिलक में आपकी नैसर्मिक एवं निखरी हई काव्य प्रतिभा का पद-पद पर अनुभव होता है। बे महा कवि थे और काव्य कला पर पूरा अधिकार रखते थे। यशस्तिलक में जहां उनकी काव्य-कला का निदर्शन होता है वहां तीसरे अध्याय या आश्वास में राजनीति का, और ग्रंथ के अन्त में धर्माचार्य एवं दार्शनिक होने का परिचय मिलता है।
इस ग्रन्थ पर ब्रह्म श्रुतसागर की संस्कृत टीका है। पर वह पूर्वार्ध पर ही है, उत्तरार्ध पर नहीं है।
प्राचार्य सोमदेव ने शक संवत ८८१ (१५९ई०) में सिद्धार्थ संवत्सर में चैत्र मास की मदनत्रयोदशी के दिन, जब कृष्णराज देव (तृतीय) पाण्डध, सिंहल, चोल और चेर प्रादि राजानों को जीत कर मेल्पाटी में शासन कर रहे थे । वहां मान्य खेट में यशस्तिलक नहीं रचा गया; किन्त कृष्णराज के सामन्त चालूक्य बंशो अरिकेसरी के ज्येष्ठ पुत्र वागराज की राजधानी गंगधारा में रचना की थी। और उसी सिद्धार्थ संवत्सर में पुप्पदन्त ने महापुराण की रचना का प्रारम्भ किया था। पुष्पदन्त ने महापुराण की उत्थानिका में लिखा है कि-'सिद्धार्थ संवत्सर में, जब चोलराज का सिर, जिस पर केशों का जूड़ा ऊपर की ओर बँधा हा था, काट कर राजाधिराज तुडिग (कृष्णराज ततीय) मेपाडि (मेलपाटी) नगर में वर्तमान हैं मैं प्रसिद्ध नामवाले पुराण को कहता हूं।
नीतिवाक्यामृत-राजनीति का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। यह संस्कृत साहित्य का अनुपम रत्न है। इस का प्रधान विषय राजनीति है। राजा और राज्य शासन से सम्बन्ध रखने वाली सभी प्रावश्यक बातों का इसमें विवेचन किया गया है। ग्रन्थ गद्य सूत्रों में निबद्ध है। ग्रन्थ की प्रतिपादन शैली प्रभावशालिनी और गंभीर है। आचार्य सोमदेव ने डा० राघवन के अनुसार इस ग्रन्थ की रचना कन्नौज के प्रतिहार राजा महेन्द्रपाल द्वितीय की प्रेरणा से की थी। इनका एक शिलालेख वि० सं० १.०३ का प्राप्त हुआ है और दूसरा वि० सं०१००५ का इनके उत्तराधिकारी देवपालका । यशस्तिलक के 'कान्यकुब्ज महोदय' और 'महेन्द्रामर मान्य धी' वाक्य भी इसकी पुष्टि करते हैं । नीतिवाक्यामृत में उसकी रचना का स्थान और समय नहीं दिया। इस ग्रन्थ पर कनड़ी भाषा के कवि नेमिनाथ की टीका है, जो किसी राजा के सन्धि विग्रहिक मंत्री थे। उन्होंने मेघचन्द्र विद्यदेव और वीरनन्दि का स्मरण किया है। नेमिनाथ ने यह टीका वीरनन्दि को प्राशा से लिखी है। मेषचन्द्र का स्वर्गवास शक सं० १०३७ (वि० सं० ११७२) में हुआ था। और वीरनन्दि ने आचारसार की कनड़ी टीका शकसंवत् १०७६ (वि.सं. १२११) में लिखी थी। अतः नेमिनाथ १२वीं शताब्दी के अन्त और तेरहवीं के प्रारम्भ में हुए हैं।
तीसरा ग्रन्य 'ध्यान विधि' या अध्यात्मतरंगिणी है, जिसको श्लोक संख्या चालीस है। इसमें ध्यान और उसके भेद आदि का वर्णन दिया है। इस पर अध्यात्मतरंगिणी नाम की एक संस्कृत टीका है। जिसके कर्ता मुनि गणधर कीति है। जिसे उन्होंने यह टीका वि० सं०११५९में चैत्र शुकला पंचमी रविवार के दिन गुजरात के चालुक्य वंशीय राजा जयसिंह या सिद्धराज जयसिंह के राज्य काल में बनाकर समाप्त की है। जैसा कि उसकी प्रशस्ति के निम्न पद्यों से प्रकट है:
१. शनि कालातीतसंवत्सरेष्वष्टस्काशीत्यधिकेषु गतेषु अंकतः (२८१) सिद्धार्थ संवत्सरान्तर्गत चैत्र माग मदन त्रयोदश्यां पाग्य-सिंहल-चोर परमप्रभूतीन्महीपतीप्रसाध्य मेलाटी प्रवर्धमान राज्यप्रभावे श्रीकृष्णराज देवे सति तत्पादपद्मोप जीविनः समधिगत पञ्चमहाशब्दमहासमान्ताधिपतेश्चातृस्य कुलजन्मनः सामन्त चुडामणे: श्रीमदरिकेसरिणः प्रथम पुत्रस्य श्रीममग राजस्य लक्ष्मी-प्रवर्षमानवसुधाराया गंगराधारायां विनिर्मापितमिद काव्यमिति।
-यस्तिलक प्रशस्ति २. जं कहमि पुराणु पसिद्धणाम, सिद्धस्थ वरिसि भुवणाहिराम् ।
उम्बद्ध जुड़ भूभंगभीसु, तोड़ेप्पिण चोडहो तण सीम् । भुवणेकरायु रायाहिराउ, जहि अच्छइ तुरिगु महाणभाउ। सं दीण दिश्य धरणकरणय पयरु, महि परिभमंतु मेंपाहि गया।
महापुराण उत्थानिका