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________________ नवमी दसवीं शताब्दी के आचार्य २२३ एकावश शताकीर्ण नवाशीत्युत्तरे परे। संवत्सरे शुभे योगे पुष्यनक्षत्रसंज्ञके ॥ चैत्रमासे सिते पक्षेऽथ पंचम्यां रवा दिने । सिद्धा सिद्धप्रदाटीका गणभृत्कीतिविपश्चितः ॥ निस्वंशजिताराती विजयश्री विराजान । जयसिंह देव सौराज्ये सज्जनानन्ददाशिनी ।। जयसिंह देव का राज्य सं० ११५० से ११६६ तक बहा रहा है। अत: गणधर कीति के उक्त समय में कोई बाधा नहीं आती। हैदरावाद के परभनी नामक स्थान से एक ताम्रपत्र प्राप्त हुना है जो यशस्तिलक की रचना से सात वर्ष पश्चात् सोमदेव को दिया गया था। उसमें चालुक्य सामन्तों की वंशावली दी हुई है, जो इस प्रकार है: यूद्धमल्ल १ रिकेशरी, नरसिंह (भद्रदेव) युद्ध मल्ल बडिग १, युद्धमल्ल अरिकेशरी नरसिंह २ (भद्रदेव), अरिकेशरी ३, वडिग २ (वाद्यग) और अरिकेशरी ४। इसी वड्डिग द्वितीय या वाद्यग के राज्यकाल ५६ ई. में सोमदेव ने अपना काव्य रचा था । इसी ताम्रपत्र में बाद्यग के पुत्र प्ररिकेसरी चतुर्थ शक सं० ८८ (६६६ ई०) में शभधाम नामक जिनालय को जीर्णोद्धारार्थ सोमदेव को एक गांव देने का उल्लेख है । यह जिनालय लेबुल पाटक नाम को राजधानी में वाद्यग ने बनवाया था। इससे स्पष्ट है कि उस समय (६६६ ई०) में सोमदेव शुभधाम जिनालय के व्यवस्थापक थे । और अपनी साहित्यिक प्रवत्ति में संलग्न थे, क्योंकि इस ताम्रपत्र में सोमदेव की यशोधर चरित के साथ-साथ 'स्याद्वादोपनिषत' नामक ग्रन्थ का भी रचयिता लिखा है। शोधार नं०२२ में डा० ज्योतिप्रसाद जी ने सोमदेव सम्बन्धी एक शिलालेख का परिचय दिया है। अस्तंगत निजामराज्य के करीम नगर जिले में स्थित 'लमुलवाड' नामक स्थान से एक पाषाणखण्ड प्राप्त हया है। जिसमें संस्कृत के दो पद्य हैं। जिनमें लिखा है कि लेम्बुल पाटक के चालुक्य वंशी नरेश बद्दिगने गौड़ संघ के माचार्य सोमदेव सूरि के उपदेश से (अथवा उनके हितार्थ) उक्त नगर में एक जिनालय का निर्माण कराया था। अभिलेख में सूचित किया है कि यह राजा वद्विग सपादलक्ष (सवालाख) देश के शासक युद्धमल्ल की पांचवीं पीढ़ी में हया था। यह वही शूभ धाम जिनालय है जिसके संरक्षण के लिए चालुक्य नरे। प्ररिकेसरी ने शक सं ८८८ (सन १६६ ई.) में अपने गुरु मोमदेव को एक ताम्र शासन अर्पित किया था। यह लेख महत्वपूर्ण है इससे शभधाम जिनालय के स्थल का पता चल जाता है। संभव है वहां खुदाई करने पर और भी अवशेष प्राप्त हो जाय । मुल शिलालेख के वे पद्य भी प्रकाशित होना चाहिए। त्रैकाल योगीश मलसंघ, देशीयगण और पुस्तक गच्छ के विद्वान थे। यह गोल्लाचार्य के विद्वान शिष्य थे। इन्होंने किसी ब्रह्म राक्षस को अपना शिष्य बना लिया था। उनके स्मरण मात्र से भूतप्रेत भाग जाते थे। इन्होंने करज के तेल को चत रूप में परिवर्तित कर दिया था। यह बड़े प्रभावशाली थे। इनका समय--१०वीं का अन्त और ११वीं शताब्दी का प्रारम्भ होना चाहिए। १.ले) बुल पटकनामधेय निजराजधान्यां निजपितुः श्री मागस्य शुभधाम जिनालयास्य वस (त:) खण्डस्फुटित नवसधाकर्म बलि निवेद्यार्थ शकान्देष्वष्टाशीत्यधिकेष्वष्टशतेपुगतेषु....ते श्रीमदरिकेसरिणा...''श्रीसोमदेवसूरये..."वनिकट पुलनामा ग्रामः''''''दत्सः।" -यदास्तिलक. इण्डि० क. पृ. ५ २. "विरचिता यशोधरचरितस्य कर्ता स्याद्वादोप निपद. कबि (चयि) ता।"
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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