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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
कवि प्रसग जीवन-परिचय--कबि असग दशबी शताब्दी के विद्वान थे। उनके पिता का नाम 'पदमति' था, जो धर्मात्मा ओर मुनि चरणों का भक्त था, और शुद्ध सम्यक्त्व से युक्त श्रावक था। और माता का नाम 'वैरित्ति' था, जो शुद्ध सम्यक्त्य से विभूषित थी। असग इन्हीं का पुत्र था । इनके गुरु का नाम नागनन्दी था, जो शब्द समयार्णव के पारगामी अर्थात ब्याकरण काध्य और जैन शास्त्रों के ज्ञाता थे । असग के मित्र का नाम जिनाप्य था । यह भी जैन धर्म में अनुरक्त शुरबीर, परलोक भीरु एवं द्विजातिनाथ (ब्राह्मण होने पर भी पक्षपात रहित था?
कवि असग जे भावकी ति मुनि के पादमूल में मौद्गल्य पर्वत पर रहकर और श्रावक के व्रतों का विधिपूर्वक अनुष्ठान कर ममता रहित होकर विद्याध्ययन करने का उल्लेख किया है। और बाद को चोल देश में जनतोपकारी राजा श्रीमाध के राज्य को पाकर और वहां की बरला नगरी में रहकर जिनोपदिष्ट आठ ग्रन्थों की रचना करने का उल्लेख किया गया है। परन्तु उन पाठ ग्रन्थों के नामों की कोई सूचना नहीं की गई। कवि ने वर्धमान परित, की रचना वि० सं०६१० (ई० सन् १५३ में की है। पौन्न कवि ने अपने शान्तिनाथ पुराण में ९५०ई० में अपने को असग के समान 'कन्नड कवितेयोल प्रसगम, बतलाया है। इससे स्पष्ट है कि असग कवि के बर्धमान चरित की रचना सन् ६५० ई० से पूर्व में हो चुकी थी, और वह प्रचार में आ गया था । अतएव वीरचरित की रचना शक सं० ११० नहीं हो सकती। वह विक्रम सं०६१० की रचना निश्चत है।
कवि की दो कृतियाँ उपलब्ध हैं वर्धमान चरित और शान्तिनाथ चरित । कवि ने वर्धमान चरित्र मार्गनन्दी की प्रेरणा से बनाया था । अन्तिम तीर्थकर भगवान वर्षमान (महावीर) का चरित अंकित किया गया है। चरित्र चित्रण में कवि में कुशल है और उसे रवि ने संस्कृत के प्रसिद्ध विविध छन्दों-उपजाति, बसन्ततिलका, शिखरिणी. वंशस्थ, शालिनी, अनुष्टुप मन्दाक्रान्ता, शार्दूलविक्रीडित, स्वागता, प्रहर्षिणी, हरिणि, और स्रग्धरा प्रादि वत्तोंमें रखने का प्रयत्न किया है । ग्रन्थ १८ सर्गों में पूर्ण हुआ है। कवि ने चरित को जन प्रिय बनाने के लिये शान्तादि रसों और उपमा, उत्प्रेक्षादि अलंकारों को पुट देकर रमणीय, सरस और चमत्कार पूर्ण बना दिया है। ग्रन्थ में महा काव्यत्व के सभी अंगो की योजना की गई है। महवीर का जीवन परिचय उनके पूर्व भवों से संयोजित है। उससे उनके जीवन विकास का क्रम भी सम्बद्ध है। यद्यपि वर्षमान का जीवन-परिचय गुणभद्राचार्य के उत्तर पुराण के ७४वें पर्व से लिया गया है, परन्तु उसे काव्योचित बनाने के लिये उनमें कुछ काट-छांट भी की गई है। किन्तु पूर्व कथानक को ज्यों का त्यों रहने दिया है, कवि ने पुरुरवा और मरीचि के पाख्यान को छोड़ दिया है । और श्वेतातपत्त नगरी के राजा मन्दिवर्धन के पुत्र जन्मोत्सव से कथानक शुरु किया है। ग्रन्थ में घटनाओं का पूर्वा पर क्रम निर्धारण, उनका परस्पर सम्बन्ध, और उपाख्यानों का यथा स्थान संयोजन मौलिक रूप में घटित हुआ है। कवि को उसमें सफलता भी मिली है। कृति पर पूर्ववर्ती कवियों के चरित्रों का उस पर प्रभाव होना सहज है। इस महाकाव्य की शैली कवि
१. संवत्सरे दशनवोत्तर वर्षयुक्ते (६१०) भावादिकीतिमुनिनायकपादमूले ।
मौद्गल्य पर्वत निवास व्रतस्थसंपत्सष्टावक प्रजनिते सतिनिर्ममत्वे ।।१०५ विद्या मया प्रपठिते त्यसगान श्रीनाथराम्ममखिल-गनतोपकारि । प्रापे च चौड़विषये वरलानगर्या ग्रन्थाष्टकं च समकारि जिनोपदिष्ट ॥१०६
--जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भा० १, प्र०१७-८ २. "मुनिवरण रजोभिः सर्वदा भूतधान्यांप्रगति समयलग्नः पावनीभूतमूर्धा ।
उपशम इन मूर्तः शुद्ध समम्यक्त्वयुक्तः पटुमतिरिति नाम्ना विश्रुतः श्रावकोऽभूत् ।।" "अरेति रित्यनुपमा भुवि तस्य भार्या सम्यक्त्व शुद्धिरिध मूर्तिमती पराऽभूत् ।"२४४ पुत्रस्तयोरसग इत्यवदात्तकीयोरासीन्मनीषिनिवहप्रमुखस्य शिष्यः । चंदांश शभ्रमशासो भुवि नाग नद्याचार्यस्य शब्द समयार्णव पारगस्य ॥२४५ तस्याभव भव्य जनस्य सेव्यः सखा जिनाप्यो जिनधर्मसक्तः । ख्यातोऽपि पौर्वात्परलोकभीरु द्विजातिनाथोऽपि विपक्षपातः ।। २४६।।