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________________ न्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य जन्म माघ शुक्ला त्रयोदशी के दिन पुष्प नक्षत्र में हुआ था । वे जन्म से ही तीन ज्ञान के धारक थे। वे बड़े भाग्यशाली मोर पुण्यात्मा थे। एक हजार आठ लक्षणों के धारक थे। उनके गर्भ में आने से पूर्व ही जन्म समयतक कुबेर ने १५ मास तक रत्नवष्टि की, उसमे नगर जन-धन से सम्पन्न हो गया था। उसकी समद्धि और शोभा द्विगुणित हो गई थी। इन्द्रादिक देवों ने उनका जन्मोत्सव मनाया । बालक का शरीर दिन पर दिन वृद्धि करता हुमा युवावस्था को प्राप्त हुमा । उन्होंने पांच लाख वर्ष तक सांसारिक सुखों का उपभोग किया। एक दिन उल्कापात को देख कर उन्हें देह-भोगों से विरक्ति हो गई। उन्होंने संसार की असारता का अनुभव किया और निश्चय किया कि यह जीवन बिजली की चंचल तरंगों के समान अस्थिर है, विनाशीक है। यह शरीर चर्मरूपी चादर के द्वारा ढका हुना होने से सुन्दर प्रतीत होता है। परन्तु यह मलमूत्र से भरा हमा है, दुर्गन्धित एवं अपवित्र है। चर्वी मज्जा और रुधिर से पकिल है। यह कर्मरूपी चाण्डाल के रहने का घर है, जिससे दर्गन्ध निकलती रहती है। ऐसे पणित शरीर से कौन बृद्धिमान संग करेगा? मैं तपश्चरण द्वारा कर्म रूपी समस्त पापों को नष्ट करने का प्रयत्न करूंगा। भगवान ऐसा चिन्तवन कर ही रहे थे कि लौकान्तिक देव प्राग ये । और उन्होंने भगवान के वैराग्य को पुष्ट किया, और कहा कि जो आपने विचार किया है वह श्रेष्ठ है । उन्होंने पत्र को राज्य भार देकर इन्द्रों द्वारा उठाई गई शिविका में प्रारूद हो सालवन की ओर प्रस्थान किया, और वहाँ बेला का नियम लेकर पंच मुद्रियों से केशों का लोच कर डाला। और माघ शुक्ला त्रयोदशी को पुष्प नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ वस्त्राभूषणों का परित्याग कर दिगम्बर मुद्रा धारण की। भगवान धर्मनाथ ने पाटलिपुत्र के राजा धन्यसेन के घर हस्तपात्र में क्षीरान्त की पारणा को तब देवों ने पंचाश्चर्य की वृष्टि की। और फिर धन में नासाग्र दृष्टि हो कायोत्सर्ग में स्थित हो गए। उन्होंने कठोर तपश्चरण द्वारा तेरह प्रकार के चारित्र का अनुष्ठान किया और मन-वचन कायरूप गुप्तियों का पालन करते हुए उन्होंने समितिरूपी अर्गलाओं से अपने को संरक्षित किया। उनकी दृष्टि निन्दा प्रशंसा में, शत्रु-मित्र में और तण काञ्चन में समान थी। उन्होंने बड़ी कठिनाई से पकने योग्य कर्मरूपी लताओं के फलों को अन्तर्वाह्य रूप तपश्चरणों की ज्वाला से पकाया और वे प्रशंसनीय तपस्वी हो गए । वे व्यामोह रहित थे, निर्मद निष्परिग्रह, निर्भय और निर्मम थे। इस तरह वे छद्यस्य अवस्था में एक वर्ष तक घोर तप का आचरण करते हुए दीक्षा वन में पहुँचे, और सप्तपर्ण वृक्ष के नीचे स्थित हो शुक्ल ध्यान का अवलम्बनकर स्थित हुए। उन्होंने माघ मास की पूर्णिमा के दिन धाति कर्म का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया। इन्द्रादिक देवोंने प्राकर उनके केबल' ज्ञान कल्याणक की पूजा की । भगवान धर्मनाथ ने दिव्य ध्वनि द्वारा जगत का कल्याण करने वाला उपदेश दिया। और विविध देशों, नगरों में विहार कर लोक कल्याण कारी धर्म का प्रसार किया-जनता को सन्मार्ग में लगाया । अन्त में संघ सहित सम्मेदाचल पर पहुंचे, वहां चैत्र शुक्ला चतुर्थी को ८०६ मुनियों के साथ साढ़े बारह लाख वर्ष प्रमाण प्रायु का और अवशिष्ट अधाति कमों का विनाशकर सिद्ध पद को प्राप्त किया । यथा तत्रासाद्य सितांशुभोगसुभगां चत्रे चतुर्थी तिथि, यामित्यां स नवोसर बमवता सार्फ तेरष्टभिः । साधं द्वादशबर्षलक्षपरमा रम्यायुषः प्रक्षये, ध्यानध्वस्त समस्तकर्म निगलो जातस्तवानी क्षणात् ।।१८४ इस तरह यह काव्य ग्रन्थ अपनी सानी नहीं रखता, बड़ा ही महत्वपूर्ण मनोहर और हृदयाग्रही काव्य है। १ पालेवागी पुप्य मंत्री प्रयाते माने शुक्ला या त्रयोदश्यनिन्द्या। धर्मस्तस्यामात्तदोक्षोऽपराह जातः क्षोणीभत्सहस्त्रेण साधम् ।। ३१ -धशर्माभ्युदय २०-३१ २ छद्यस्योऽसौ वर्ष मेक विहृत्य प्राप्तो दीक्षाकाननं झालरग्यम् । देवो मूले सप्तपर्ण वमस्य ज्यान शुक्लं सम्यगालम्ब तस्थौ ।। ५६ माघे मासे पूर्णमास्यां स पुष्ये कृत धमों द्यालि कर्मव्यपायम् । उत्पादानधौधवस्तुस्वभावोभासिज्ञान केवल स प्रपेदे ।। ५७
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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