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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ समय- अमितगति ने अपना पंचसंग्रह वि० सं० १०७३ में बनाकर समाप्त किया है, अतः उड्ढा की रचना उससे पूर्ववर्ती है। डड्ढा ने अमृतचन्द्र के तत्त्वार्थसार का उद्धरण दिया है। श्राचार्य अमृतचन्द्र का समय विक्रम की दशवीं शताब्दी है । अतः डढ्ढा अमृतचन्द्र के बाद के विद्वान् हैं। चूंकि डड्ढा के पंचसंग्रह का एक पद्य जयसेन के धर्मरत्नाकर में उध्दृत पाया जाता है। धर्मरत्नाकर का रचना काल सं० १०५५ हैं । अतः उड्ढा का पंचसंग्रह १०५५ से पहले बना है। इससे वह विक्रम की ११ वीं शताब्दी के पूर्वार्ध की रचना है। ब्रह्मदेव की द्रव्य संग्रह की गाथा ४२ की टीका पृ० १७७ में उड्ढा के पंचसंग्रह के २२६ और २३० नम्बर के पद्य पाये जाते हैं। इससे पंचसंग्रह में द्रव्य संग्रह की टीका से पहले बन चुका था । २५८ पंडित प्रवचनसेन पंडित प्रवचन सेन - इनका उल्लेख लाड बागडगण श्रीर बलात्कारगण के विद्वान् श्रीनन्धाचार्य सत्कवि के शिष्य थे श्रीचन्द्र मुनि ने पंडित प्रवचनसेन से पद्मचरित सुनकर उसका टिप्पण धारा नगरी में सं० १०८७ में बनाया था । इससे स्पष्ट है कि पंडित प्रवचनसेन उस समय धारा में ही निवास करते थे। इनका समय विक्रम की ११वीं शताब्दी है । इन्होंने किन ग्रन्थों की रचना की यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका । शान्तिनाथ शान्तिनाथ - इसके पिता गोविन्दराज, भाईकन्नपायें और गुरु वर्धमान व्रती थे। जिनमताम्भोजिनी राजहंस, सरस्वती मुख मुकर, सहज कवि, चतुर कवि, निस्सहाय कवि श्रादि इनके विरुद हैं। शक सं० ६६० के गिरिपुर के १३६ वें शिलालेख से ज्ञात होता है कि यह भुवनं कमल्ल (१०६८-१०७६ तक) पराजित लक्ष्म नृपति का मंत्री था। इसके उपदेश से लक्ष्य नृपति ने बलिग्राम में शान्तिनाथ भगवान का मन्दिर बनवाया था। इस लेख में कवि के 'सुकुमार चरित' ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है । कवि का समय भी सन् १०६८ से १०७६ तक सुनिश्चित है । इन्द्रकोfa इन्द्रकीर्ति — कौण्डकुन्दान्वय देशी गण के आचार्य थे। इनकी अनेक उपाधियां थीं। को गलिवंजिबेल्लारी के शक सं० ९७७ सन् १०५५ (वि० सं० १११२) के लेख में, जो चालुक्य सम्राट त्रैलोक्य मल्ल के राज्य काल का है। इस मन्दिर का निर्माण गंगवंश के राजा दुर्विनीत ने किया था। लेख के समय श्राचार्य इन्द्रकीर्ति ने मन्दिर को कुछ दान दिया था। (इण्डियन एण्टीक्वेरी ५५ सन् १९२६ ० ७४) गुणसेन पंडितदेव प्रस्तुत गुणसेन पंडित द्रविल गण के नन्दिसंघ तथा महामरुङ्गलाम्नाय के गुरु पुष्पसेन व्रतीन्द्र के शिष्य थे । आगम रूपी अमृत के गहरे समुद्र थे । व्याकरण श्रागम और तर्क में निपुण थे । यह मुल्लूर के निवासी थे। और पोय्सल के गुरु थे । पोय्सलाचारि के पुत्र माणिक पोसलाचारि ने यह बसदि बनवाई और शक वर्ष ६८४ शुभकृत संवत्सर में फाल्गुन शुद्ध पंचमी बुधवार रोहिणी नक्षत्र में भगवान की प्रतिष्ठा की तथा तिरुनन्दीवर के काल में दान देकर गुणसेन पंडितदेव को सौंप दिया। लेख चूंकि शक सं० ६८४ सन् १०६२ ई० का है। इन्होंने सन् १०५० के लगभग धर्म के तौर पर 'नागकूप' नाम का एक कुवा मुल्लूर ग्राम के वास्ते खुदवाया था (एपि ग्रा० इंडिका कु इनकृप्सन्स नं० ४२ ) ( लेख नं० २०२ पृष्ठ २८४ ) शक सं० ६८० (१०५८ ई०) में मुल्लूर का यह शिलालेख लिखा गया । इसमें लिखा है कि राजेन्द्र गाल्व ने उस वस्ति के लिये दान दिया जो उसके पिता ने बनवाई थी । राजाधिराज की माता पोञ्चरसि ने गुणसेन को दान दिया । ( कुर्ग इन्स्कृप्सन्स १९१४ नं० ३५) शक सं० ६८६ (१०६४ ई०) में मुल्लूर का यह शिला लेख उत्कीर्ण हुआ, जिसमें गुणसेन की मृत्यु का
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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