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भारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान आचार्य
उल्लेख है । ( कुर्ग इनकृप्सन्स सन् १९६४० ३४
गोपनन्दी
गोपनन्दि-- यह मूलसंध, देशिय गण और वक्रगच्छ के देवेन्द्र सिद्धान्त देव के समकालीन शिष्य थे । यह चतुखदेव इसलिये कहलाये, क्योंकि इन्होंने चारों दिशाओं की ओर मुख करके आठ-आठ दिन के उपवास किये थे । प्रस्तुत गोपनन्दीश्रद्वितीय कवि और नैयायिक थे, इनके सम्मुख कोई वादी नहीं ठहर सकता था । इन्होंने घूट जैस विद्वान् की जिह्वा को भी बन्द कर दिया था। परम तपस्वी, वसुधैव कुटुम्ब, जैन- शासनाम्वर के पूर्णचन्द्र, सकलागमवेदी और गुणरत्न विभूषित थे । देशीय गण के अग्रणी थे और व्रतीन्द्र थे । इनके राधमां धाराधिप भोजराज द्वारा पूजित प्रभाचन्द्र थे । होयसल नरेश एरेयंग ने शक सं० १०१५ सन् १०६३ (वि० सं० १९५०) में उक्त गोपनन्दी को जीर्णोद्धार आदि कार्यों के लिये दो ग्राम दान में दिये थे।
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( वृषभनन्दी -- जीतसार समुच्चय के कर्ता )
यह नन्दनन्दी के वत्स और श्रीनन्दी के चरण कमलों के भ्रमर थे । गुरुदास भी उन्हीं के शिष्य थे । जिन्हें तीक्ष्णमति श्रर 'सरस्वतीसुनु' प्रकट किया है। जैसा कि ग्रन्थ प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है ! श्रीनन्वि नन्दिवत्सः श्रीमन्दी गुरुपदाज षट्चरणः । श्रीगुरुवास नंधात्तीक्ष्णमतिः श्री सरस्वतीसूनुः ॥५॥
वृषभनन्दी ने उक्त नंद नंदी मुनिराज को शास्त्रार्थज्ञ, पंक धारी, तपांक सिद्धांतज्ञ, सेव्य और गणेश जैसे विशेषणों के साथ स्मृत किया है। इनके चार शिष्यों का उल्लेख मिलता है, परन्तु उनके एक प्रमुख शिष्य गुरुदासाचार्य भी थे। तन्दनन्दी के शिष्यों में अपने से पूर्ववर्ती दो गुरुभाइयों श्री कीति और श्री नन्दी का नामोल्लेख किया है । और अपने उत्तरवर्ती एक गुरु भाई हर्षनन्दी का अनुरूप में उल्लेख किया है। जिसने ग्रन्थ की सुन्दर प्रतिलिपि तैयार की थी। वृषभनन्दी ने कौण्डकुन्दाचार्य के जीतसार का सम्यक् प्रकार अवधारण किया था, इसी कारण उन्होंने अपने को 'जीतसाराम्बुपायी' (जीतसार रूप श्रमृत का पान करने वाला ) प्रकट किया है। कुन्द कुन्दाचार्य का यह ग्रन्थ जीर्ण-शीर्ण रूप में मान्यखेट में सिद्धान्तभूषण नाम के संद्धान्तिक मुनिराज ने एक मंजूषा में देखा था । और प्रार्थना करके प्राप्त किया था, और उसे पाकर वे सभरी स्थान को चले गए थे। उन्होंने वृषभनन्दी के हितार्थ उसकी व्याख्या की थी, जिसका जीतसार समुच्चय में अनुसरण किया गया है।
श्रा० श्रभयनन्दी
भन्दी विबुधगुणनन्दी के शिष्य थे। यह अपने समय के समस्त मुनियों के द्वारा मान्य विद्वान् थे । इन्होंने जैनधर्म के विषय में परम्परागत श्रवर्णवादों—मिथ्या प्रवादों को दूर किया था। इनके द्वारा जैन धर्म की बड़ी प्रभावना हुई थी। ये समुद्र की भांति गंभीर एवं सूर्य की तरह तेजस्वी थे । अत्यन्त गुणी और मेधावी थे। वे भव्य जीवों के एक मात्र बन्धु तथा उद्बोधक थे। जैसा कि चन्द्रप्रभचरित प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है :"मुनिजननुतपादः प्रास्तमिथ्याप्रवादः सकलगुणसमृद्धस्तस्य शिष्यः प्रसिद्धः ।
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श्रभवद् अभयनन्दी जैनधर्माभिनन्दी,
स्वमहिमजितसिन्धुर्भव्य लोकबन्धुः || ”
१. जैन शिलालेख सं० भाग १ पृ० ११७ २. (एक ग्राफिया कर्णाटका जि० ५,
३. अनुज श्री हर्ष नंदिना सुलिख्य जीत
सार शास्त्रज्वलोदृधु तं ध्वाजापते (जोत समुच्चयसार अजमेर भंडार प्रति)