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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
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उत्कीर्ण हुआ है।" जिसमें सं० ११५२ वंशाखसुदि पञ्चभ्यां श्री काष्ठासंघ महाचार्यवर्य श्रीदेवसेन पादुका युगलम् " लेख अंकित है उसके भाग में एक खण्डित मूर्ति अंकित है जिसपर श्री देव ( सेन ) लिखा है। इस समय के साथ प्रस्तुत नरेन्द्रसेन का समय ठीक बैठ जाता है । अर्थात् प्रस्तुत नरेन्द्रसेन विक्रम की १२वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान हैं। क्योंकि लाडवागड गण के जयसेन ने अपना 'धर्मरत्नाकर' सं० १०५५ में बनाकर समाप्त किया है। उनसे चौथी पीढ़ी में प्रस्तुत नरेन्द्रसेन हुए हैं। यदि एक पीढ़ी का समय कम से कम २० वर्ष माना जाय तो तीन पीढियों का समय ६० वर्ष होता है, उसे १०५५ में जोड़ने पर सं० १११५ होता है। इसके बाद नरेन्द्रसेन का समय शुरु होता है । श्रर्थात् नरेन्द्रसेन सं० ११२० से ११६० के विद्वान ठहरते हैं ।
ग्रन्थ रचना
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एक सिद्धान्तसारसंग्रह और दूसरी कृति प्रतिष्ठादीपक है जिनकी श्लोक संख्या १६२४ है । इस ग्रन्थ में गृद्धपिच्छाचार्य
इस समय इनकी दो कृतियां प्रसिद्ध हैं। सिद्धान्तसार संग्रह में १२ परिच्छेद या अधिकार हैं, के तत्त्वार्थ सूत्र का एक प्रकार से प्रकटीकरण है। इसके साथ ही अन्य अनेक बातों का संकलन किया गया है। प्रथम परिच्छेद में सम्यग्दर्शन का वर्णन है, और द्वितीय परिच्छेद में सम्यग्ज्ञान का निरूपण है। तीसरे परिच्छेद में सम्यक् चारित्र का तथा अहिंसादि पंचयतों का कथन किया गया है। चौथे परिच्छेद में अन्य मतान्तरों का वर्णन किया है। पांचवें परिच्छेद में जीव तत्त्व का कथन किया है । और छठे परिच्छेद में नरक गति का वर्णन है ।
सातवें परिच्छेद के २३४ पद्मों में मध्यलोक का कथन किया है । और आठवें परिच्छेद में १४६ पद्यों द्वारा गत्यनुवाद द्वार से जीवतत्त्व का निरूपण किया गया है। नौवें परिच्छेद के २२५ पद्यों में अजीव प्रसव और बंध तत्व का वर्णन किया गया है । १० वें परिच्छेद के १६६ पद्यों द्वारा निर्जरा और प्रायश्चित्त का निरूपण किया गया है । ११ वें परिच्छेद के १०१ पद्यों में मोक्ष तत्व का वर्णन किया है और अन्तिम १२ वं परिच्छेद के ६१ पद्मों में केवलज्ञान की प्राप्ति के लिये धाराधना का कथन किया है।
इनकी दूसरी कृति प्रतिष्ठा दीपक है जिसे उन्होंने पूर्वाचार्यानुसार रचा है, और जो अभी भ्रप्रकाशित है। ग्रन्थ के अन्त में प्रशस्ति नहीं है। इसमें जिनमन्दिर, जिनमूर्ति आदि के निर्माण में तिथि, नक्षत्र, योग ग्रादि का वर्णन, तथा स्थाप्य स्थापक और स्थापना का कथन किया है। उसके प्रारंभ के मंगल पद्य इस प्रकार हैं:विश्वविश्वम्भराभारधारि धर्मधुरन्धरः । बेमाद्वो मङ्गलं देवो दिव्यं श्रीमुनिसुव्रतः ॥ नमस्कृत्य जिनाधीशं प्रतिष्ठासार दीपकम् । वक्ष्ये बुद्ध्यनुसारेण अन्त में लिखा है ---
पूर्वसू रिमतानुगम् ॥
सर्वग्रन्थानुसारेण संक्षेपाचितं मया । प्रतिष्ठादीपक शास्त्र शोषयन्तु विचक्षणाः ॥
कवि सिद्ध और सिंह
कवि सिद्ध पंपाइय और देवण का पुत्र था। उसने अपभ्रंश भाषा में पज्जुण्ण चरिउ (प्रद्य ुम्नचरित) की रचना की थी, किन्तु वह ग्रन्थ किसी तरह खण्डित हो गया था और उसी अवस्था में वह सिंह कवि को प्राप्त हुमा । कवि सिंह ने उसका समुद्धार किया था, जैसा कि निम्न वाक्य से प्रकट है:
१. See Archeological Survey of India VoL २० P. 102 २. पुरण पंपाइय देव गंदगु भविवरण एरायणाणंव ।
बुद्धपण जण एय पंकव छप्पउ, भइ सिद्ध पणमिय परमप्पल || "