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ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
प्रमाचन्द्र प्रभाचन्द्र–मेघचन्द्र विद्य देव के प्रधान शिष्य थे । और वर्द्धन राजा की पट्टानी शांतलदेवी के गुरु थे। शाक सं०१०६८ सन् ११४६(वि० सं० १२०३)में जिनके स्वर्गारोहण का उल्लेख श्रवणबेल्गोल के शिलालेख नं०५० में पाया जाता है । इनके गुरु मेषचन्द्र का स्वर्गवास शक सं०१०३७ (वि० सं० ११७२) में हुआ था। इससे इन प्रभाचन्द्र का समय विक्रम की १२वीं शताब्दी है।
देखो जैन लेख संग्रह ४८
माधवसेन नाम के अन्य विद्वान भाधवसेन मूलसंघ सेनगण और पोगरिगच्छ के चन्द्रप्रभ सिद्धान्तदेव के शिष्य थे। इन माधवसेन भद्रारकदेव ने जिन चरणों का मनन करके पंचपरमेष्ठी का स्मरण करते हुए समाधिमरण द्वारा स्वर्ग प्राप्त किया। यह लेख संभवतः सन् ११२५ ई० का है । अतः इनका समय ईसा की १२वीं शताब्दी है।
(जैन लेख सं० भा० २१०४३७) यह माधवसेन प्रतापसेन के पट्टधर थे, जिन्होंने पंचेन्द्रियों को जीत लिया था, जिससे यह महान तपस्वी जान पड़ते हैं। ये विद्वान होने के साथ-साथ मंत्रवादी भी थे। इन्होंने बादशाह अलाउद्दीन खिलजी द्वारा प्रायोजित बाद-विवाद में विजय प्राप्त कर जैनधर्म का उद्योत किया था, और दिल्ली के जैनियों का धर्मसंकट दूर किया था।
देखो, सि.भा.भा. १ किरण ४ में प्रकाशित काष्ठासंघ पट्टावली का फूरनोट) वीरसेन पंडितदेव-मलसंघ, सेनगण और पोगरिगच्छ के विद्वान थे। इनके सहधर्मी पंडित माणिक्यसेन थे। जिन्हें सन् ११४२-४३ में दुन्दुभिवर्ष पुष्य शुद्ध सोमवार को उत्तरायण संक्रान्ति के समय, पश्चिमी चालुक्य राजा जगदेकमल्ल द्वितीय के १२००० प्रदेश पर शासन करनेवाले योगेश्वर दण्डनायक सेनाध्यक्ष ने पेगडे मदुन मल्लिदेव सेनाध्यक्ष की अनुमति से भूमि दानदिया था। (जैन लेख सं० भा० ३ १५६)
नरेन्द्र सेन लाड वागड संघ के विद्वान वीरसेन के प्रशिष्य और गुणसेन के शिष्य थे। इन वीरसेन के तीन शिष्य थे-गुणसेन, उदयसेन और जयसेन । इनमें गुणसेन सूरि अनेक कलानों के धारक थे। इन्हीं के शिष्य नरेन्द्र सेन ने 'सिद्धान्तसार संग्रह' की रचना की है। नरेन्द्रसेन ने ग्रन्थ के पुष्पिका बाक्य में अपने को पंडिताचार्य विशेषण के साथ उल्लेखित किया है :
इति श्रीसिमान्तसारसंग्रहे पपिडताचार्य मरेन्द्रसेनविरचित सम्यग्ज्ञान निरूपणो द्वितीयः परिवः ।"
जिस समय नरेन्द्रसेन ने सिद्धान्तसारसंग्रह की रचना को, उस समय उनके गुरु यौर प्रगूरु दोनों ही मौजद थे। क्योंकि कवि ने ग्रन्थ के नवमें परिच्छेद में दोनों को नमस्कार किया है, और लिखा है कि वोरसेन के प्रसाद से मेरी बद्धि निर्मल हई है और गुणसेनाचार्य की भक्ति करने से उनके प्रसाद से मैं साधु संपूजित देवसेन के पद पर प्रतिष्ठित हुमा हूं।
जिन देवसेन के पट्र पर नरेन्द्रसेन प्रतिष्ठित हुए वे देवसेन कौन हैं ? यह विचारणीय है। नरेन्द्रसेन के समय की संगति को देखते हुए मुझे तो यह संभव प्रतीत होता है कि दूबकुण्ड के स्तम्भ लेख में, जो संवत् ११५२ में
१. योऽभूच्छी वीरसेनो विबुधजन कृताराधनो ऽ गामवृत्तिः ।। तस्मालग्धि प्रसादे मयि भवतु च मे बुद्धि वृक्षो विशुद्धिः ॥२२४ सोऽयं श्री गुरणसेन संयमपर प्रध्यक्तभक्तिः सदा, सत्तीति तनुते जिनेश्वरमहासिद्धान्तमार्गे गिरः। भूत्वा सोऽपि नरेन्द्रसेन इति वा यास्यत्यवश्यं पदम्, श्री देवस्य समस्तसाघुमहितं तस्य प्रसादान्ततः ॥२२५