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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भाग ३ का है, जिसका नाम उसकी पुष्पिका वाक्यों में 'लवत्ति' दिया हा है। यह ग्रन्थ प्रमेय बहल होने के कारण बाद को इसका नाम प्रमेय 'रत्न माला' हो गया है। कर्ता ने इसके विषय का संक्षेप में इतने सुन्दर ढंग से प्रतिपादन किया है कि न्याय के जिज्ञासूत्रों का चित्त उसकी ओर आकर्षित होता है । इसमें समस्त दर्शनों के प्रमेयों का इतने सुन्दर एवं व्यवस्थित ढंग से प्रतिपादन किया गया है। यदि प्रमेयों का विशद वर्णन न किया जाता तो प्रमाण की चर्चा अधूरी ही रहती। माणिक्यनन्दी के परीक्षामुखकी विशाल टीका प्रमेयकमल मार्तण्ड इन अनन्तवीर्य के सामने था, उसमें दार्शनिक विषयों का प्रतिपादन विस्तार से किया गया है । पंजिकाकार ने प्रभाचन्द्र के वचनों को उदार चन्द्रिका की उपमा दी है और अपनी रचना पंजिका को खद्योत (जगन) के समान प्रकट किया है, जंसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट है :
"प्रभेन्दुवचनोवार चन्त्रिकाप्रसरे । सति ।
मावृशाक्य गण्यन्ते ज्योतिरिगण सन्निभा॥" फिर भी लष अनन्तवीर्य की मन कतिमाते विशयनी गौलिक है, यह उसकी विशेषता है। अनन्तवीर्य ने इसकी रचना वैजेय के प्रिय पुत्र हीरप के अनुरोध से शान्तिषण के लिये बनाई है।
परीक्षामुख सूत्र ग्रन्थ छह अध्यायों में विभक्त है। उसी के अनुसार पंजिका भी छह अध्यायों में विभाजित है, जिन में प्रमाण, प्रमाण के भेदों का कथन, प्रमाण में प्रामाण्य स्वतः और अप्रमाग्य परत: होता है, मीमांसको की इस मान्यता का निराकरण करते हुए अभ्यासदशा में स्वत: और मनभ्यासदशा में परत:प्रामाण्य सिद्ध किया गया है। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के वर्णन में मति ज्ञान के ३३६ भेदों का प्रतिपादन सर्वज्ञ की सिद्धि और सृष्टि कर्तत्व का निराकरण किया गया है । परोक्ष प्रमाण के स्मृति प्रत्यभिज्ञान प्रादि भेदों का स्वरूप निर्दिष्ट करते हुए वेदों को पौरुषेय सिद्ध किया है । चार्वाक, बौद्ध, नैयायिक, वैशेषिक और मीमांसकों के मतों की मालोचना की गई है। प्रमाण का फल और प्रामणाभासों के भेद प्रभेदों का सुन्दर विवेचन किया है। इससे ग्रन्थ की महत्ता और गौरव बढ़ गया है।
प्राचार्य प्रभाचन्द्र द्वारा स्मृत अकलंक के सिद्धि विनिश्चय के व्याख्याकार अनन्तबीर्य इनसे भिन्न भोर पूर्ववर्ती हैं । पंडित प्रवर पाशधर जी ने अनगार धर्मामृत की स्वोपशटीका (१० ५२८) में प्रमेयरत्नमाला का मंगल श्लोक उद्धत किया है। इन्होंने अनगार धर्मामृत को टीका को वि० सं०१३०० (सन् १२४३) में समाप्त किया था। इससे प्रमेयरत्नमालाकार लघु अनन्तवीर्य का समय ई. सन् १०६५ और ई. सन् १२४३ के मध्य प्राजाता है। मनन्तवीय की इस प्रमेय रत्नमाला का प्रभाव हेमचन्द्र की 'प्रमाण मीमांसा' पर यत्र तत्र पाया जाता है। हेमचन्द्र का समय ई. सन् १०६८ से ११७३ है ' । अतः अनन्तवीर्य ईसा की ११वीं शताब्दी के शन्तिम चरण के विद्वान प्रमाणित होते हैं।
बालचन्द्र सिद्धान्तवेव मूलसंघ देशीयगण और वक्र गच्छ के विद्वान थे। इनके शिष्य रामचन्द्रदेव थे। जिन्हें यादव नारायण बीरबल्लाल देव के राज्य काल में नल संवत्सर १११८ (सन् ११६६) में पुराने व्यापारी कवडमम्य और देव सेट्टि ने शान्तिनाथदेव की वसदि के लिये दान दिया था। इससे बालचन्द्र सिद्धान्तदेव का समय ईसा की १२वीं शताब्दो है।
-जैन लेख सं० भा०३१०२३० १ इति परीक्षा मुखस्य लघुवृत्ती वितीयः समुद्देशः ॥२॥ २ बजेपप्रियपुत्रस्य हीरपस्योपरोषतः । शान्तिषेणार्थमारब्धा परीक्षामुखपजिफा ।। ३ नतामरशिरोरत्न प्रभाप्रोतनरवरिवः । नमो जिनाय दुरि मारवीरमदच्छिदे ॥-प्रमेय रत्नमाला ४ नलकच्छपुरे श्रीमन्ने मिचैत्यालयेऽसिधत् । विक्रमान्दशतेम्वेषा त्रयोदशसु कार्तिके ॥३१॥ अनगार धर्मामृत प्रशस्ति प्रमाण मीमांसा प्रस्तावना पृ० ४३