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ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, अाचार्य
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निश्चित होता है । बारात सज-धज कर जूनागढ़ के सन्निकट पहुंचती है, नेमिनाथ बहुत से राज पुत्रों के साथ रथ में बंटे हुए पास-पास की कि सुपा या निरीक्षण करते हुए जा रहे थे । उस समय उनकी दृष्टि एक ओर गई तो उन्होंने देखा कि बहुत से पशु एक बाड़े में बन्द हैं। वे वहां से निकलना चाहते हैं किन्तु वहां से निकलने का कोई मार्ग नहीं है । नेमिनाथ ने सारथि से रथ रोकने को कहा और पूछा कि ये पशु यहां क्यों रोके गए हैं। नेमिनाथ को सारथि से यह जान कर बड़ा खेद हुआ कि बरात में आने वाले राजाओं के आतिथ्य के लिये इन पशुओंों का वध किया जायगा। इससे उनके दयालु हृदय को बड़ी ठेस लगी, वे बोले यदि मेरे विवाह के निमित्त इतने पशुओं का जीवन संकट में है, तो धिक्कार है मेरे इस विवाह को श्रव में विवाह नहीं करूंगा। पशुओं को छुड़वाकर तुरन्त ही रथ से उतर कर मुकुट और कंकण को फेंक वन की ओर चल दिये। इस समाचार से बरात में कोहराम मच गया। उधर जूनागढ़ के अन्तःपुर में जब राजकुमारी को यह ज्ञात हुआ, तो वह मूर्छा खाकर गिर पड़ी। बहुत से लोगों ने नेमिनाथ को लौटाने का प्रयत्न किया, किन्तु सब व्यर्थ । नेमिनाथ पास में स्थित ऊर्जयन्त गिरि पर चढ़ गए और सहसावन में वस्त्रालंकार यादि परधान का परित्याग कर दिगम्बर मुद्रा धर भारमध्यान में लीन हो गए। राजमती प्रतिदुःखित होती है तीसरी संधि में इसके वियोग का वर्णन है । राजीमती ने भी तपश्चरण द्वारा सात्म-साधना की। अन्तिम सन्धि में नेमिनाथ का पूर्ण ज्ञानी हो धर्मोपदेश और निर्वाण प्राप्ति का कथन दिया हुआ है। इस तरह ग्रन्थ का चरित विभाग बड़ा हो सुन्दर तथा संक्षिप्त है, और कवि ने उक्त घटना को सजीव रूप में चित्रित करने का उपक्रम किया है ।
कवि ने संसार की विवशता का सुन्दर अंकन करते हुए कहा है - जिस मनुष्य के घर में अन्न भरा हुआ है । उसे भोजन के प्रति अरुचि है। जिसमें भोजन करने की शक्ति है, उसके पास शस्य (धान्य) नहीं। जिसमें दान का उत्साह है उसके पास धन नहीं, जिसके पास धन है, उसे प्रति लोभ है। जिसमें काम का प्रभुत्व है उसके भार्या नहीं जिसके पास स्त्री है उसका काम बान्त है। जैसा की ग्रन्थ की निम्न पंक्तियों से स्पष्ट है
जसु हि ष्णु ससु रुइ होइ, जसु भोज सति तमु ससुण होइ । जसु दाण चाहतसु दविणु णत्थि जसु दविणु तासु उइलोहु प्रत्थि । जसु मयणराउ तसि प्रत्थि भाम, जसु भाम तासु उच्छवण काम ।
-- मिणाहचरिउ ३-२
कवि ने ग्रंथ में कवकों के प्रारम्भ में हेला, दुबई और वस्तु बंध यादि छन्दों का प्रयोग किया है। किंतु ग्रन्थ में छन्दों की बहुलता नहीं है।
ग्रंथकर्ता ने स्थान-स्थान पर अनेक सुन्दर सुभाषितों और सूक्तियों का प्रयोग किया है । वे इस
प्रकार हैं
किं जीवइ धम्म निवज्जिएण - धर्म रहित जीने से क्या प्रयोजन है कि सुई संगरि कायण - युद्ध में कायर सुभटों से क्या ?
किं वयण सच्चा भाषणेण, झूठ वचन बोलने से क्या प्रयोजन
क पुत्तई गोत्तविणासणंण, कुल का नाश करने वाले है पुत्र से क्या ?
कि फुल्लई ग्रंथ विवज्जिएण- गंध रहित फूल से क्या ?
ग्रंथ की पुष्पिका में कवि ने अपने पिता का उल्लेख किया है।
इति मिणाह चरिए वृहद रयण सुत्र लक्खणेण विरइए भव्वयणमणाणंदे णेमिकुमार संभवोणाम पढमो परिच्छेश्रो समत्तो ।
लघु अनन्तवीर्य ( प्रमेय रत्नमाला के कर्ता)
लघु अनन्तवीर्य ने अपनी गुरु परम्परा का और रचना काल का कोई उल्लेख नहीं किया । इस कारण उनके रचना काल के निश्चय करने में कठिनाई हो रही है। इन लघु श्रनन्तवीर्य की एक मात्र कृति परिक्षामुख पंजि