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ग्यारहवी और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचायें
तासु
'es fear हो विरयंत हो विणासु, संपत्तउ कम्मवसेण ' पर कज्जं पर कवं विहतं जेष्टि उद्धरियं" (पज्जुण्णच० प्र०) कवि सिद्ध ने इसे कब बनाया, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता ।
कवि सिंह गुर्जर कुल में उत्पन्न हुआ था, जो एक प्रतिष्ठित कुल था। उसमें अनेक धर्मनिष्ठ व्यक्ति हो चुके हैं । कवि के पिता का नाम बुध रल्हन था, जो विद्वान थे। माता का नाम जिनमती था, जो शीलादि सद्गुणों से विभूषित थी। कवि के तोन भाई और थे, जिनका नाम शुभंकर, गुणप्रवर और साधारण था। ये तीनों भाई धर्मात्मा और सुन्दर शरीर वाले थे। कवि सिंह स्वयं प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और देशी इन चार भाषाओं में निपुण था ।
कवि ने पज्जुण्ण चरित की रचना बिना किसी की सहायता के को थी । उसने अपने को भव-भेदन में समर्थ, शमी तथा कवित्व के गर्व सहित प्रकट किया है। कवि ने अपने को, कविता करने में जिसकी कोई समानता न कर सके ऐसा असाधारण काव्य प्रतिभा वाला विद्वान बतलाया है। साथ ही वह वस्तु के सार-प्रसार के विचार करने में सुन्दर बुद्धिवाला समीचीन, विद्वानों में अग्रणी, सर्व विद्वानों की विद्वत्ता का सम्पादक, सत्कवि था । उसी ने इस काव्य ग्रन्थ का निर्माण किया है।
साथ ही कवि ने अपनी लघुता व्यक्त करते हुए अपने को छन्द अलंकार और व्याकरण से अनभिज्ञ, तर्क शास्त्र को नहीं जानने वाला और साहित्य का नाम भी जिसके कर्णगोचर नहीं हुआ, ऐसा कवि सिंह सरस्वती देवी के प्रसाद को प्राप्तकर सत्कवियों में अग्रणी मान्य तथा मनस्वी प्रिय हुआ है ।
१. जातः श्री निजधर्मकर्म निरतः शास्त्रार्थं सर्वप्रियो, भाषाभिः प्रववतुभिरभवच्छ्री सहनामा कविः । पुत्रो रल्हण पंडितस्य मतिमान् श्रीगुर्जरागो मिह । इष्टि ज्ञात - चरित्र भूषिततनुर्वशे त्रिशालेतौ ।।
- पज्जुष्ण चरित्र की १३वीं संधि के प्रारंभ का पद्य
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२. "साहाय्यं समवाप्य नाथ सुकवेः प्रद्यमन काल्यस्य यः । भूद् भवभेदचतुरः श्री सिंह नामा शमी । साम्यं तस्य कवित्व सहितः को नाम जातोऽवनो श्रीमती सुपथे सार्थः प्रवृत्तेः क्षमा ।।" -चौदहवीं संधि के अन्त में सारासार विचार चार धिषणः सधीमतामग्रणी । जातः सत्कविरत्नमयं विदुषां वैदुष्य संपादकः । येनेदं चरितं प्रगल्भ मनसा शांतः प्रमोदास्पदं । प्रद्य ुम्नस्य कृतं कृतवितां जीयात् स सिंहः क्षितौ ॥ वीं संधि के अन्त में ३. छन्दोऽकृति लक्षणं न पतिं नाभावि तर्कागमो; जातं हंतन करगोचरचरं साहित्य नामाऽपि च । सिंहः सत्करिणी समभवत् प्राप्य प्रसादं पर, वाग्देव्याः मुकवित्य जातयशसा मान्यो मनस्विप्रियः ॥