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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ अपनी माता कल्नब्बे द्वारा निर्मित जिनमन्दिर के लिए 'कादलूर' नाम का एक गांव शक संवत् ८८४ सन् ८६२ में पौषवदी। मंगलवार के दिन दान दिया था, जब वे मेल्पाटि के स्कन्धावार में थे।
(देखो, कादलूर का ताम्रशासन, जैन ले० सं० भा०५१. २०)
गुणचन्द्र पंडित गुणचन्द्र पंडित कुन्दकुन्दान्वय देशीयगण के महेन्द्र पण्डित के प्रशिष्य और वोरनन्दि पंडित के शिष्य थे। इन्हें राष्ट्रकट सम्राट् अकाल वर्ष कृष्णराजदेव (तृतीय) के सामन्त गंग वंशीय कुतव्य पेमाडि रानो पद्मव्यरसि द्वारा निर्मित दानशाला के लिए नमयर मारसिधय्य ने एक तालाब अर्पित किया था। यह लेख शक सं० ८७३ सन् १५० पौष शुक्ला १०मी रविवार को दिया गया था।
(जैन लेख सं० भा० ४ पृ०५३)
अनन्तकीति अनन्तकोति अपने समय के यशस्वी ताकिक हो गये हैं। लघु सर्वशसिद्धि के अन्त में उन्होंने लिखा है
समस्तभुवन व्यापि यासानन्तकोतिना ।
कृतेय मुज्ज्वला सिद्धिधमंजस्य निरगला॥ इनके बनाये हुए लघु सर्वज्ञसिद्धि और वृहत्सर्वशसिद्धि नाम के दो ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। उनमें कोई प्रशस्ति आदि नहीं हैं जिससे उनकी गुरु परम्परा और समयादि का पता लग सके।
. न्याय विनिश्चय के टीकाकार वादिराजसूरि ने अपने पार्श्वनाथ चरित में अनन्तकीर्ति का स्मरण निम्न पद्य में किया है :
मात्मनेवाद्वितीयेन जीवसिद्धि निबध्नता।
अनन्सकीर्तिना मुक्ति रात्रिमार्गव लक्ष्यते ।। इससे स्पष्ट है कि अनन्तकोति ने 'जीवसिद्धि' नाम के ग्रंथ का प्रणयन किया था। अनन्तवीर्य ने सिद्धिविनिश्चय टीका के पु० २३४ के प्रमाण विचार प्रकरण में प्राचार्य अनन्तकीति के 'स्वतः प्रमाणभङ्ग' प्रकरण का उल्लेख निम्न प्रकार किया है:
शेष मुक्तवत् अनंतकीतिकृतेः स्वतः प्रामाणयभक्षादवसेय मेतत् ।" अनन्तवीर्य ने सिद्धिविनिश्चय टीका पृ०७०८ के सर्वज्ञसिद्धि प्रकरण में—'अनुपदेशालिङ्गा ब्यभिचारिनष्टमष्टयाद्यपदेशान्यथानुपपत्तेः हेतु का प्रयोग किया है जो अनन्तकीति को लघु और बृहत्सर्वज्ञसिद्धि (प०१०) का मल हेत हैं। इससे स्पष्ट है कि अनन्तकीर्ति अनन्तवीर्य से पूर्ववर्ती हैं। सिद्धि विनिश्चय के टीकाकार अनन्तवीर्य का समय डा० महेन्द्रकुमार जी ने सन् ६५९ ई. के बाद और ई० १०२५ से पहले किसी समय हए बताया है। ये वही ज्ञात होते है जो वादिराज के दादागुरु श्रीपाल के सधर्मा रूप से उल्लिखित हैं।
प्राचार्य शान्ति सूरि ने जैन तर्कबार्तिवृत्ति' 'पृ.७७ में स्वप्नविज्ञानं यत् स्पष्ट मुत्पद्यते इत्यनन्तकादय" लिखकर स्वप्न ज्ञान को मानस प्रत्यक्ष मानने वाले अनन्तकीति प्राचार्य का मत दिया है। यह मत वहत्सर्वज्ञसिद्धि के कर्ता अनन्तकीर्ति का ही है। उन्होंने लिखा है "तथा स्वप्नजाने चानक्षजेऽपिवैशद्यमुपलभ्यते" वहत्सर्वशसिद्धि पृ० १५१ । शान्तिसूरि का समय ई० ६६३ से ११४७ के मध्य माना गया है। इससे भी अनन्तकीर्ति का समय ई०६६३ से पूर्ववर्ती है।
प्रमेय कमलमार्तण्ड और न्यायकुमुद के कर्ता आचार्य प्रभाचन्द्र का समय सन् १८० से १०६५ ई०है। उन्होंने न्यायमूकुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्ड के सर्वज्ञसिद्धि प्रकरणों में अनन्तकीति की वृहत्सर्वज्ञसिद्धि का पूरा-पूरा शब्दानुसरण किया है। इससे भी अन्तकोति प्रभाचन्द्र से पूर्ववर्ती हैं।
१. जन तकवातिक प्रस्तावना पृ० १४१