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________________ नवम शवीं शताब्दी के आचार्य २२३ इस दिशा में एक मध्यम वृद्धि का आदमी उसी तरह उपहासास्पद होगा, जिस तरह संग्राम भूमिरा भागे हए कायर पुरुष का होता है। कवि ने अपनी छन्द और अलंकार-सम्बन्धो कमजोरा को जानते हुए भी जैनधर्म के अनु राम प्रार और सिद्धसेन के प्रसाद से रचना कर ही डाली। कवि ने अपने से पूर्ववर्ती तीन कवियों का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि चतुमु ख का मुख सरस्वती का प्रावास मन्दिर था । और स्वयंभू-लोक-प्रलोक के जानने वाले महान् देवता श्रे। तथा पुष्पदन्त अलोकिक पुरुप थे। जिनका साथ सरस्वती कभी नहीं छोड़ती थी। कवि अपनी लता व्यक्त करते हुए कहता है दिइनकी तुलना में अत्यन्त मन्द बुद्धि हूं। पुष्पदन्त ने भी चतुर्मुख और स्वयंभू का उलेदेख किया है। पुष्पदन्त ने अपना महापुराण ६६५ ई० में पूर्ण किया है। जयकीति कवि कन्नड प्रान्त के निवासी थे। इनकी एकमात्र कृति छन्दोनुशासन है, जिनमें वैदिक छन्दों को छोड़कर आठ प्रध्यायों में विविध छन्दों का वर्णन किया गया है। ग्रन्थ के अन्तिम दें। अध्यायों में कन्नड़ छन्दों का विवंचन दिया हया है। ग्रन्थ की रचना पद्यात्मक है जिसमें अनुष्टुभ, आर्या और स्कन्ध छन्दों का लक्षण पूरी तरह या नाशिक रूप में उसी छन्द में दिया है। यह ग्रन्थ छन्दों के विकास की दृष्टि से केदारभट्ट के वृत्तरत्नाकर और हेमचन्द्र के छन्दोऽनुशासन के मध्य की रचना कहा जा सकता है । ग्रन्थ' के अन्त में माण्डव्य, पिङ्गल, जनाश्रय, सेतव, पूज्यपाद और जयदेव को पूर्वाचार्यों के रूप में स्मरण किया है। किन्तु छन्दोनुशासन के अर्धसम वृत्ताधिकार में पाल्यकोति और स्वयंभू देव के मत से सुनन्दिनी और नन्दिनी छन्द के लक्षण भी प्रस्तुत किये है। "जतौ जरौ शंखनिधिस्तु तो जरौं, श्री पात्यकीतीश मते सुनन्दिनी ॥२१ तो गौ तथा पद्म पवमनिधितो जरौ, स्वयम्भुवेवेशमते तु नन्दिनी ।।"२२ इससे इनका समय ईसाकी १०वीं शताब्दी से पूर्व होना चाहिए। क्योंकि वि० की दशवीं शताब्दी के प्राचार्य असगने इनका उल्लेख किया है । कवि असगने अपना 'वर्धमान चरित' सं०६१० में बनाकर समाप्त किया है। छन्दोनुशासन की यह प्रति सं०११६२को लिखी हुई है। और जैसलमेर के भण्डार में मौजद है। जयकीर्ति का यह छन्दोनुशासन डा० एच० डी० वेलंकर द्वारा सम्पादित होकर जयदामन ग्रन्थ के साथ प्रकाशित हो चुका है। देखो-मि. गोविन्द पै का Jaikirti in the Kannada quarterly Prabhudha Karnatak Vol' 28 No.3 Jan. 1942 Mysore College Mysore. Bombay University Journal 1847. बरपनन्दी बासवनन्दी के शिष्य थे। और इन्द्रनन्दी प्रथम के प्रशिष्य थे। संभव है ज्वालामालिनी कल्प के कर्ता इन्द्रनन्दी इन्हों बप्पनन्दो से दोक्षित हो। क्योंकि इन्द्रगन्दो ने अपना उक्त अन्य शक गु०८६१ सन् २३६ (नि० म० ६६६) में समाप्त किया है। इन्द्रनन्दी में प्रशस्ति में बप्पनन्दी को पूराण विपण में एधिक ख्याति प्राप्त करनेवाला लिखा है । और उन्हें पुराणार्थ वेदो बतलाया है। (दखो, ज्यालामालिनी कल्प प्रशस्ति पद्य ४) बन्धुषेण प्राचार्य बन्धुषेण-(यापनीय संघ के प्राचार्य) थे, जो निमित्तज्ञान में पारंगत थे। और दामीति के ज्येष्ठ पुत्र जयकीति के गुरु थे। (जन लेख सं० भा.२पृ०७५ एलाचार्य सूरस्त गणके विद्वान, रविचन्द्र के प्रशिष्य और रविनन्दी भाचार्य के शिष्य थे। जो तप के अनुष्ठान में तत्पर रहते थे, और बड़े विद्वान थे। तथा कोगल देव के निवान श्र। उन्हें गंगवशीय राजा मारसिंह (द्वितीय) ने
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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