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नवमी-दश शताब्दी के आचार्य
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सिद्धिविनिश्चय के टीकाकार अनन्तवीर्य ने (१० २३४) में प्रामाण्यविचार प्रकरण में आचार्य अनन्तकोति के 'स्वतः प्रमाण भङ्ग' ग्रन्थ का उल्लेख किया है, जो इस समय ग्रनुपलब्ध है ।
अतः इन अनन्तकीर्ति का समय सन् ८५० से ६८० से पूर्ववर्ती है । अर्थात् वे ईसा की १०वीं शताब्दी के
वद्वान हैं
नीति ( नाम के अन्य विद्वान )
जैन शिलालेख संग्रह प्रथम भाग में चन्द्रगिरि पर्वत के महानवमा मंडप के एक शिलालेख में मूलसंघ देशीगण पुस्तक गच्छीय मेघचन्द्र त्रैविद्य के प्रशिष्य और वीरनन्दी बिद्य के शिष्य अनन्तकीति का स्याद्वाद रहस्यवाद । इसमें इनको परम्परा fagu के रूप में उल्लेख मिलता है। यह शिलालेख शक सं० १२३५ सन् १३१३ ई० का के रामचन्द्र के शिष्य शुभचन्द्र के उक्त तिथि में किए गए देवलोक का वर्णन है । अतएव इन अनन्तकीर्ति का समय ईसा की १२वीं शताब्दी जान पड़ता है, क्योंकि इनके दादागुरु (मेघचन्द्र) का स्वर्गवास ई० सन् १११५ में हो गया था । मेघचन्द्र के शिष्य प्रभाचन्द्र के दिवंगत होने की तिथि शक सं० १०६८ (सन् ११४६ ) आश्विन शुक्ला दशमी दी गई है। उसमें मेघचन्द्र के दो शिष्यों का प्रभाचन्द्र और वीर नन्दी का उल्लेख है । अस्तु, प्रस्तुत श्रनन्तकीति ईसा को १२वीं सदी के विद्वान हैं ।
अनन्तकीभिट्टारक
बान्धव नगर की शान्तिनाथ वसद ई० सन् १२०७ में बनाई गई थी, जब कपदम्य वंश के किंग ब्रह्म का राज्य था । यह वसदि उस समय क्राणूर गण तन्त्रिणमच्छ के प्रनन्तकोति भट्टारक के अधिकार में थी । श्रतएव इनका समय ईसा की १३वीं सदी हैं। जैन शिलालेख सं० भाग ३ पृ० २३२ में होम्सल वीर बल्लाल देव के व २३ वर्ष (सन् १२१२ ) जगभर के का वर्णन है। उसमें जक्कले के उपदेष्टा के गुरु रूप में अनन्तकीर्ति का उल्लेख है। प्रस्तुत अनन्तकोति बान्धव नगर की शान्तिनाथ वसदि के अधिकारी श्रनन्त afa aafa हैं, क्योंकि दोनों का समय लगभग एक ।
अनन्तकीति
अनन्तकीति काष्ठासंघ माथुरान्वय के पूर्णचन्द्र थे और मुनि अश्वसेन के पट्टधर थे। इनके शिष्य एवं पट्टधर भट्टारक क्षेमकीर्ति थे । इनका समय विक्रम को १४वीं शताब्दी है ।
मौनि
भट्टारक
यह पुन्नाट संघ के पूर्ण चन्द्र थे, और सम्पूर्ण राद्धान्त रूप वचन किरणों से भव्य रूप कुमुदों को विकसित करने वाले थे, जैसा कि हरिषेण कथा कोश के प्रशस्ति पद्य से प्रकट है ।
यो बोधको भयमुतीनां निःशेषराद्धान्तवचोमयूखं । पुग्नाटसघांवरसन्निवासी श्रीमौनिभट्टारक पूर्णचन्द्रः ॥
हरिषेण ने कथा कोश का रचना काल शक सं० ८५३ बतलाया, कथा कोश के कर्ता मौनिभट्टारक से चतुर्थ पीढ़ी में हुए हैं । अतः हरिषेण के शक सं० ८५३ में से ६० वर्ष कम करने पर शक सं० ७३३ हुए। उसमें ७८ जोड़ने पर समय सन् ८७१ हुए अर्थात् विक्रम को वीं शताब्दी इनका समय होता है । इनके शिष्य हरिषेण थे ।
श्रीहरिषेण
हरिषेण पुन्नाट संघ के विद्वान मौनिभट्टारक के शिष्य थे जो अपने समय के बड़े भारी विद्वान तपस्वी थे । गुणनिधि और जनता द्वारा अभिवन्द्य थे । उक्त कथा कोश के रचना काल में से ४० वर्ष कम करने
१. मिडियावल जैनिज्म पु५ २०६
२. सारागमाहित] मतिविदुषां प्रपूज्यो नानातपो विधिविधान करो विनेयः ।
तस्याभवद् गुणनिधिर्जनिताभिवंद्यः श्री शब्द पूर्व पद को हरिषेण संज्ञः ॥ ५