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________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य ३७. सिद्धान्ते जिन वीरसेन सदशः शास्त्राम्जमा-भास्करः षटतध्यकलंकवेव विबुधः सक्षावयं भूतले। सर्व व्याकरणे विपश्चिवधिपः श्रीपूज्यपावः स्वयं । विद्योत्तम मेघश्चन्द्र मुनियो वावीभपंचाननः ।। इनके शिष्य वीरनन्दी प्राचार्य ने प्राचारसार को प्रशस्ति में उन्हें सिद्धान्तार्णवपूर्णतारकपति' योगीन्द्र चूड़ामणि, प्रौर विद्यविभूषण मादि विशेषणों के साथ उल्लेखित किया है । यथा सिद्धान्तार्णव पूर्णतारकपतिस्तकम्युिजाहपतिः शग्दोघानवनामतोक्सरणिर्योगीन्द्रचूडामणिः । विद्यापरसार्थ नाम विभवः प्रोद् धूतचेतोभवः, स्थेयावश्यमृतावनीमृदशनिः श्रीमेघचन्द्रो मुनिः ।।३० यद्वाछी रवतंस मण्डनमणिग्धविग्धत्विषाम् याचारित्र विचित्रता शमभृतां सूत्रं पवित्रात्मनाम् । यत्कीतिर्थ बलप्रसाधनधुरं पत्त धरा योषितः, स विद्याविभूषणं विजयते भीमेषचन्द्रो मुनिः ॥३१ जयनेक शिष्य थे। नीरनन्दी, अनन्तकीर्ति. प्रभाचन्द्र और शुभकीर्ति । लेख नं० ५० में मेषचन्द्रबिद्य देव के शिष्य प्रभाचन्द्र को प्रागम का ज्ञाता वीर वीरनन्दी को भारो सैद्धान्तिक बतलाया है। इन प्रभाचन्द्र का स्वर्गवास शक सं० १०६८ (सन् १९४६ई०) और वि० सं० १२०३ में हुआ था। इनमें वीरनन्दो 'आचारसार के कर्ता हैं, और जिन्होंने उसकी स्वोपज्ञ कनड़ी टीका शक सं०१०७६ (सन् ११५३ ई.) में बनाकर समाप्त को थी। मेधचन्द्रविद्यदेव का स्वर्गवास शक सं० १०३७ वि० स० ११७२) में मगशिर सुदी चतुर्दशी वहस्पतिवार के दिन धनुर्लग्न में हुआ था। जैसा कि श्रवणवेलगोल के शिलालेख नं. ४७ के निम्न वाक्यों से प्रकट है-- ___ "सक वर्ष १०३७ नेयमन्मथ संवत्सरव मार्गसिर सुद्ध १४ बृहबार धनुर्लग्नद पूर्वाह्न वारुधलि मेयप्पग्गल श्रीमूलसङ्घद देसियगणद पुस्तकगच्छव श्रीमेधचन्द्र विद्यदेवर्तम्मयसानकालमवरितु पल्पङ्कासन बोलिद प्रारमभावनेयं भाविसुत' देवलोक्के सम्बराभाव नेयन्त पुदेन्दोडे।" प्रतः इन मेघचन्द्र का समय वि. की १२ वीं शताब्दी सुनिश्चित है। शान्तिषण यह काष्ठासंघान्तमंत माथुरसंघ के विद्वान अमितगति (द्वितीय) के शिष्य थे। जिन्होंने अपने चरण कमलों. पर महीश को नमा दिया था। चूकि अमितगति द्वितीय का समय संवत् १०५० से १०७३ है। अतः उनके शिष्य शान्तिषण का समय ११वीं शताब्दी का मन्तिम भाग होना चाहिये। प्रमरसेन शान्तिषेण के शिष्य और माथुरसंघ के प्रधिप अमरसेन हुए, जो पापों का नाश करने वाले थे-माहरसंभाहिउ अमरसेण तहो हउ विणेउ पूण हय-पूरेण " (षट् कर्मोपदेश प्रशस्ति)। इनका समय १२वीं शताब्दी का मध्य भाग संभव है। श्रीषेणसूरि यह अमरसेन सुरि के शिष्य थे। माथुरसंघ के पंडितों में प्रधान और वादिरूपी वन के लिये कृशानु(अग्नि) १. गरिए संतिसेण तहो जान सीसु, रिणय-चरण कमल-णामिय महीसु-षट्कर्मोपदेश प्रशस्ति।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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