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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ थे। इनका समय १२वीं शताब्दी का तृतीय चरण होना चाहिये । "सिरिसेणु पंडित पहाणु, सहो तीसवाइय-काणण-किसाणु।"
नेमिचन्द्र यह कवि अपने समय में बहत प्रसिद्ध था। वीर वल्लाल देव और लक्ष्मण देव इन दो राजामों को सभा में इसकी बड़ी प्रतिष्ठा थी । कलाकान्त, कविराज मल्ल, कवि धवल, शृङ्गारकारागह, कविराज कंजर, साहित्य विद्या घर, विद्यावधूवल्लभ, सुकविकण्ठाभरण, विश्वविद्या विनोद, चतुषिा कवि चक्रवर्ती, सुकर कवि शेखर, आदि इसके विरुद थे । इसकी दो कृतियां उपलब्ध हैं-लीलावती और नेमिनाथ पुराण । इनमें लीलावती कनड़ी भाषा का चम्पू ग्रन्थ है। इसमें १४ आश्वास हैं। कवि ने इसे केवल एक वर्ष में बनाकर समाप्त किया था। यह ग्रन्थ मुख्यतः शृगारात्मक है। कर्नाटक कवि चरित में इसकी कथा का सार निम्न प्रकार दिया है:
कदम्बवशीय राजारों की राजधानी जयन्तीपुर प्रथवा जनवास नाम के नगर में थी। वहाँ चूडामणि नाम का राजा राज्य करता था। उसको प्रधान रानी का नाम पपावती और पुत्र का नाम कन्दर्प देव था । गुणगन्ध नामा संशका पुम मकरन्द रामकुमार का बहुत ही प्यारा मित्र था। कन्दर्प एक दिन स्वप्न में एक रूपवती स्त्री का दर्शन करके उस पर अत्यन्त प्रासक्त हो गया। दूसरे दिन उस स्त्री को खोज में वह अपने मित्र के साथ उस दिशा की ओर चल दिया, जिस दिशा की ओर उसने उसे स्वप्न में जाते देखा था। चलते-चलते वह कुसुमपुर नाम के नगर में पहुंचा। वहाँ के राजा शृगारशेखर की लीलावती नाम को एक रूपवती राजकुमारी थी। इस राजकुमारी ने भी स्वप्न में एक राजकुमार को देखा था और उस पर अपना तन मन वार दिया था। स्वप्नदृष्ट राजकुमार की खोज में उसने कई दुत इधर-उधर भेजे थे। उन दूतों के द्वारा लीलावती और कन्दर्प का परिचय हो गया, और अन्त में उन दोनों का विवाह हो गया। लीलावती को प्राप्त करके कन्दर्प अपनो राजधानी को लौट पाया और सुखपूर्वक राज्य-कार्य सम्पादन करने लगा।" इसका कथा भाग सुबन्धु कवि की वासवदत्ता का अनुकरण मालूम होता है।
' लीलावती की रचना सरस और सुन्दर है । इसकी रचना गंभीर, शृगाररसपूरित और हृदयहारिणी है । इससे कवि को प्रतिभा, शब्द सामग्री का चयन और वाक्यपद्धति अनन्यसाधारण प्रतीत होती है।
कवि की दूसरी कृति 'नेमिनाथ पुराग' है। इसमें बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ का जीवन-परिचय अंकित किया गया है । यह ग्रन्थ कवि ने वीरवल्लाल नरेश (११७१-१२१६)के पद्यनाभ नामक मंत्री की प्रेरणा से बनाया था। यह ग्रंथ अधुरा जान पड़ता है। क्योंकि इसके प्रारंभ में यह प्रतिज्ञा की गई है कि नेमिनाथ की कथा में गौणता से वासुदेव कृष्ण भोर कन्दर्प की कथा का भी समावेश किया जायगा, परन्तु आठवें भाश्यास में कंसवध तक का कथा भाग पाया जाता है। जान पड़ता है, ग्रन्थ पूर्ण होने से पहले ही कवि दिवंगत हो गया हो। इस कारण ग्रन्थ का नाम 'अर्धनेमि' कहा जाने लगा है । इस प्रन्थ के प्रारंभ में तीथकर, सिद्ध, यक्ष यक्षिणी और गणधर की स्तुति के बाद गद्धपिच्छ प्राचार्य से लेकर पूज्यपाद पर्यन्त पूर्वाचार्यों का स्मरण किया गया है। ग्रन्थ के प्रत्येक पाश्वास के अन्त में निम्नलिखित गछ मिलता है-"इति मपद बन्ध बन्धुर सरस्वतीसौभाग्य व्यंग्य भंगी निधान बोपर्वात-चतुर्भाषाकवि चक्रवर्वात मेमिचन्द्र कृते भीमत्प्रताप चक्रवति श्री वीर बल्लाल प्रसाबासावित-महाप्रधान पदवोविराजित-सज्जेवल्ल पद्म मानदेवकारिते नेमिनाथ पुराणे।"
लीलावती ग्रन्थ के अन्त में इसने एक पद्य में लिखा है कि राजा लक्ष्मणदेव समुद्र बलयांकित पृथ्वी का स्वामी है। उक्त लक्ष्मणदेव का कर्णपार्य (११४०) ने अपने नेमिनाथपुराण में उल्लेख किया है । कर्णपार्य के समय में लक्ष्मणदेव सिंहासनारू नहीं हुआ था, उसका पिता या बड़ा भाई विजयादित्य राज्य करता था। परन्तु कवि नेमिचन्द्र के समय बह राज्य का स्वामी था। इससे कवि नेमिचन्द्र का समय कर्णपार्य के बाद का निश्चित होता है। नेमिचन्द्र ने नेमि पुराण की रचना जिस वीरबल्लाल के मंत्री पद्मनाभ की प्रेरणा से की है, उसका समय ११७२ से १२१६ पर्यन्त है। इससे भी उक्त समय यथार्थ प्रतीत होता है । कविनेमिचन्द्र ईसा की १२वीं शताब्दी के चतुर्थ चरण