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तेरहवी और चौदहवी शताब्दी के प्राचार्य विद्वान और कवि
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'छेदपिण्ड' है। जो ३३३ गाथा को संख्या को लिए हुए हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ का विषय प्रायश्चित्त है। प्रायश्चित-विपयक यह ग्रन्थ एक महत्वपूर्ण कृति है। प्रायश्चित्त, छेद, मलहरण, पापनाशन, शुद्धि, पुण्य पवित्र, पोर पावन ये सब उसके पर्यायवाची नामान्तर हैं। इसमें सन्देह नहीं कि प्रायश्चित्त से चित्त शुद्धि होती है। और चित्तशुद्धि प्राम विकास में निमित्त है। चित्तशद्धि के बिना प्रात्मा में निर्मलता नहीं पाती। अतः प्रात्म विकास के इच्छुक मुमुक्ष जनों को प्रायश्चित्त करना उपयोगी है, ज्ञानी को प्रात्म निरीक्षण करते हुए अपने दोषों या अपराधों के प्रति सावधान होना पड़ता है। अन्यथा दोषों का उच्छेद सम्भव नहीं है। किस दोष का क्या प्रायश्चित विहित है यही इस अन्य का विषय है। जिसका कथन अनेक परिभाषायों और व्याख्यानों द्वारा दिया है। इन्दनन्दो ने यह ग्रन्थ मनि, आयिका, श्रावक, श्राविकारूप चतुर्विध संघ और ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-मीर शूद्ररूप चारों वर्ण के सभी स्त्री-पुरुषों को लक्ष्य करके लिखा गया है। सभी से बन पड़ने वाले दोषों का अपराधों के प्रकारों का आगमादि विहित तपश्चरणादिरूप शोधनों का-ग्रन्थ में निर्देश किया गया है।
छेद शास्त्र के साथ इसकी तुलना करने से ऐसा जान पड़ता है कि एक दूसरे के सामने ये ग्रन्थ रहे है। छेद शास्त्र के कर्ता का नाम अज्ञात हैं। छेदशास्त्र की २-३ गाथाएँ छेदपिण्ड में प्रक्षिप्त हैं। क्योंकि वहां उनका होना उपयुक्त नहीं है। छेदपिण्ड को दूसरी प्रतियों में वे नहीं पाई जातीं। प्रतएव वे वहां प्रक्षित हैं। कुछ गाथामा में समानता भी पाई जाती है। इस कारण मेरी राय में छेदपिण्ड के कर्ता के सामने छेदशास्त्र अवश्य रहा है।
छेदपिण्ड व्यवस्थित स्वतंत्र कृति मालम होती है।
इन्द्रनन्दी ने अपने को गणी और योगीन्द्र विशेषणों के साथ उल्लेखित किया है। इन्द्रनन्दी नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं :
प्रथम इन्द्रनन्दी वे है, जो वासवनन्दी के गरु थे।
दूसरे इन्द्रनन्दी वे हैं जो वासवनन्दी के प्रशिष्य और बलनन्दी के शिष्य थे, और जिन्होंने शक सं० १६१ (वि० सं०९६६) में ज्वालामालिनी कल्प की रचना की है। सम्भवतः गोम्मटसार के कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के भी गुरु यही जान पड़ते हैं।
तीसरे इन्द्रनन्दी श्रुतावतार के कर्ता हैं । इनका समय निश्चित नहीं है। चौथे इन्द्रनन्दी का उल्लेख मल्लिषेण प्रशस्ति में पाया जाता है । जो शक सं० १०५० (वि० सं० ११८५) में उत्कोर्ग की गई है।
पांचवें इन्द्रनन्दी भट्टारक नीतिसार के कर्ता है। यह ग्रन्थ ११३ श्लोकात्मक है। इसमें जिन प्राचार्यों के ग्रन्थ प्रमाण माने जाते हैं। उनमें श्लोक ७० में सोमदेवादि के साथ प्रभाचन्द्र और नेमिचन्द्र (गोम्मटसार के कर्ता) का भी नामोल्लेख है । इस कारण ये इन्द्रनन्दी उनके बाद के विद्वान हैं।
छठे इन्द्रनन्दो वे हैं। जिन्होंने श्वेताम्बरी विद्वान हेमचन्द्र के योगशास्त्र की टीका शक सं० ११८० (वि० सं०१३१५) में बनाई थी और जो अमरकीति के शिष्य थे। यह योगशास्त्र टीका कारंजा भंडार में उपलब्ध है।
सातवें इन्द्रनन्दी संहिता ग्रन्थ के कर्ता हैं। इन सात इन्द्रनन्दी नाम के विद्वानों में से यह निश्चित करना कठिन है कि कौन से इन्द्रनन्दी छेदपिण्ड ग्रन्थ के कर्ता हैं।
पं. नाथूराम जी प्रेमी ने संहिता ग्रन्थ के कर्ता इन्द्रनन्दी को छेदपिण्ड का कर्ता बतलाया है। और मुख्तार सा० ने नीतिसार के कर्ता इन्द्रनन्दी को छेदपिण्ड का कर्ता सूचित किया है। बहुत संभव है नोतिसार के कर्ता हो छेदपिण्ड के कर्ता निश्चित हो जाय ।
नीतिसार के कर्ता का समय विश्रम की तेरहवीं शताब्दी माना जाता है। इन्होंने अपने देवज्ञ और कुन्द
"। छन्दशास्त्र
१. पायश्चित्तं सो ही मलहरणं पावागसणं छंदो । पज्जाया २. देखो, पुरातन वाक्य-सूत्री को प्रस्तावना पृ० १०६ ३. दुरित-गृह-निग्रहाइयं यदि भो भरि-नरेन्द्र-बन्दिनम् । ननु तेन हि भब्यदेहिनों भजत थो पुनीमिन्दिने ।।
-मल्लिनेण प्रभास्ति